Wednesday, May 13, 2015

Type of Person

जानिए किस प्रकार के मनुष्य हैं हम ?

विवेक : विवेक वह परिष्कृत बुद्धि है, जिसके आधार पर हम सही-गलत, हानि-लाभ के निर्णय लेते हैं । हमारे विवेक अर्थात समझदारी का स्तर ही हमारी Quality of Life decide करता है । शिक्षा, धन होने के बाद भी परेशान, दुखी, बीमार, जीवन जीना और विपन्न होते हुए भी संतुष्ट, प्रसन्न, सफल जीवन जीना मनुष्य के विवेक पर निर्भर है । कई शिक्षितों में भी विवेक बुद्धि नहीं होती, और कई अनपढ़ में भी बहुत अच्छी समझदारी होती है ।

वैज्ञानिक-अध्यात्मवाद के ऋषि हमें बताते हैं कि संसार भर के मनुष्यों को उनके विवेक के आधार पर चार वर्गों में विभक्त किया जाता है ।

Ignorant (आर्तः):-  यह व्यक्ति अपने मतलब के यार होते हैं । किसी और के भले बुरे से इन्हें कुछ लेना देना नहीं होता, यहाँ तक कि अपनी बुरी आदतों से अपना खुद का नुक्सान भी करते हैं ।  मस्ती मज़े से जीना मात्र इनका मकसद होता है किसी भी कीमत पर ।  दूरदर्शिता का आभाव होता हैं, निर्णय क्षमता कम होती है । अक्सर कंफ्यूज रहते हैं ।  असुरक्षा, डर, हीनता, अविश्वास, नकारात्मकता के विकारों से ग्रसित रहते हैं ।  केवल दुःख के समय ही अपने ईश्वर/अल्लाह को याद करते हैं ।
              इस प्रकार के व्यक्ति को केवल क्षणिक आनंद की प्राप्ति ही हो पति है। गलत कर्मो के कारण सदैव असंतुष्टि, आत्मग्लानि, पश्चाताप बना रहता है, जिसे दबाने के लियें फिर कामवासना, शराब, ड्रग्स तक का सहारा लेता है। जीवन दिशा हीन रूप में चलता है और अंतिम परिणाम में शोक-पश्चाताप-दुःख के सिवा कुछ नहीं बचता ।

Desirous (अर्थार्थी):-  भोग- विलास की वस्तु  संगृहीत करने की प्रबल लालसा होती है । बड़ी गाडी, बड़ा पैसा, ऐशों आराम ही इनका सपना होता है ।  अपना पेट अपना परिवार ही इनकी दुनिया होती है । समाज के भले के लियें कुछ खास योगदान नहीं करते बस अकारण किसी को नुक्सान नहीं देते ।  मनोकामनाएँ ले कर मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा इत्यादि में जाते हैं और ईश्वर के साथ मनौती पूरी करों और प्रसाद लो का व्यापार करते हैं ।  वर्तमान समय में ज्यादातर मनुष्य Ignorant-Desirous स्तर के हैं ।
               इस प्रकार के व्यक्ति अपने लियें साधन-सामग्री तो जुटा लेता है, परन्तु असंतुष्टि सदैव बानी रहती है । ज्यादा से ज्यादा पाने के लालच से वह भीतर से खोखला होता चला जाता है ।  कामनाएँ कभी पूरी नहीं होती, अपितु विष बनकर जीवन ले जाती हैं । सिर्फ स्वार्थ भरा जीवन जीने से इनकी अंतरात्मा सदैव इन्हें कचोटती रहती है । जिन समाज में ऐसे लोग ज्यादा होते हैं, वहां स्वार्थ वृति प्रभावी हो जाती है, वहां हिंसा, अपराध, अश्लीलता बढ़ जाती है ।

Seekers (जिज्ञासु):- विवेक के जागरण के साथ इन्हें मनुष्य एवं मनुष्यता का एहसास होता है ।  ये  जानते हैं कि केवल पेट-परिवार ही जीवन नहीं, अपितु देश-समाज भी हमारी जिम्मेदारी है। अपने आप को भौतिकता से निकाल कर आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और ज्ञान को प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं ।  अपना जीवन केवल मौज मस्ती के लियें नहीं अपितु किसी लोक उपयोगी उद्देश्य के साथ जीते हैं । बुरी आदतों पर संयम रखकर अपने शरीर-मन-आत्मा के उत्थान के लियें सदैव प्रत्यनशील रहते हैं । देश के अच्छे नागरिक, समाज के सेवक एवं परिवार के अच्छे सदस्य, अच्छे मित्र साबित होते हैं ।
                 इस प्रकार के व्यक्ति एक अच्छे दोस्त, अच्छे नागरिक होते हैं । जीवन के मूल उद्देश्य को पहचान कर आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं । लोकसेवी के कार्यों में भाग लेने से लोक यश मिलता है और जीवनधर्म पालन से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । उत्तम स्वास्थ्य, एवं आनंदित मन के साथ जीते है। इनका समाज सदैव समृद्ध, सुरक्षित एवं प्रगतिशील होता है ।

Wise (ज्ञानी):- जीवन के वास्तविक स्वरुप को प्राप्त, स्वार्थ रहती जीने वाले परोपकारी-ज्ञानी व्यक्ति ।  आत्मा-परमात्मा के बोध को प्राप्त ज्ञानी पुरुष समस्त स्वार्थों, बंधनों से ऊपर उठ जाते हैं, एवं दूसरों के  हित के लियें अपना जीवन लगा देते हैं । लोकसेवी-महात्मा-संत-महामानव सभी ज्ञानी पुरुष ही होते हैं ।  धरती पर सत्य-न्याय-प्रेम के अस्तित्व को यही जीवित रखते हैं ।
                 धरती पर ईश्वर के रूप में रहने वाले ज्ञानी पुरुष, विवेकहीनो को विवेक देते हैं, अज्ञानियों को ज्ञान देते हैं । कष्टों से मानवजाति को उबरते हैं और आदर्शवादी जीवन जी कर दूसरो के लियें उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । इन्हीं महापुरषों के कारण धरती पर पुण्य का सत्य का अस्तित्व बना रहता है । जिस समाज में एक भी ज्ञानी होते हैं तो वह समाज धन्य कहलाता है । वहां के सभी मनुष्य अज्ञानी से ज्ञानी विवेकवान होते चले जाते हैं ।

इस प्रकार हम जान सकते हैं कि हमारा विवेक का स्तर क्या है। उसी स्तर के अनुसार हमारे जीवन की गति भी होगी। धन से जीवन सुविधाजनक मात्र बनता है, परन्तु जीवन की दिशा-धारा उसकी गति और जीवन का अंतिम परिणाम हमारे विवेक पर निर्भर करता है । मित्रता भी हम अपने विवेक स्तर अनुरूप व्यक्ति  से ही करते हैं ।
उदाहरण जेम्स के पास बहुत धन था, परन्तु विवेक की कमी थी । उसने बिना सेहत की फ़िक्र करें, Junk Food , Alcohol, और फिजूलखर्ची में अपना जीवन व्यतीत किया । मात्र दिखावे का जीवन जिया । उसने स्वास्थ्य की समझदारी नहीं दिखाई तो उसे बिमारियों ने घेर लिया । पैसों की फिजूलखर्ची की  तो उसके कई व्यापार दिवालिया हो गए । दिखावे का जीवन जिया तो उसके बहुत सारे झूठे मित्र बने जो मुश्किल समय में उसका साथ छोड़ कर चले गए । जीवन में सुविधा का उपभोग तो उसने जीभर कर किया, पर अंतः परिणाम में उसके हाथ कुछ ना रहा ।

हम भी विवेक के आभाव में ऐसी कई छोटी बड़ी भूल करते हुए जी रहे है । इससे हमारे ही जीवन के परिणाम गलत होते जा रहे हैं । और सामूहिक रूप से होने वाली इन भूलों के कारण पूरा समाज आज अश्लीलता, अपराध, हिंसा, भ्रष्टाचार का शिकार हो गया है । हम अपने जीवन में स्वयं दुःख आमंत्रित करते हैं और समाज को भी दुखी बनाते है ।

अतः मित्रों ! जीवन को सुविधाजनक बनाने के लियें धन का उपार्जन करें और जीवन के परिणाम को सफल बनाने हेतु विवेक पूर्वक जीवन जियें, विवेक को बेहतर बनायें । इससे न केवल आपका जीवन आनंदमय होगा, बल्कि आपका परिवार और समाज दोनों सुखी होंगे । समाज सेवा करने का यह बहुत ही अद्धभुत एवं आसान मार्ग है ।

                                                                                                                  ॥ सर्वे भवन्तुः सुखिनः ॥

Friday, May 1, 2015

Vasna_Apraadh

आखिर क्यों पैदा हो रहे हैं समाज में वहशी दरिंदे


बलात्कार, हत्या, लूट, फ़रेब अब आम बात हो चली है। एक समय था जब समाचार में किसी की हत्या पढ़ कर मन दुखी होता था । अब अपराध की ऐसी आंधी चली है, कि हमारी संवेदनशीलता ही कम होती जा रही है। और यह जघन्य अपराध करने वाले कोई विदेशी या परग्रही नहीं, हमारे ही समाज के भटके हुए व्यक्ति हैं ।
  अपराध बढ़ा है और अनियंत्रित होता जा रहा है । प्रशासन पहले ही पंगु था अब पूर्णतः असहाय दिख रहा है। और इसका पूरा खामियाजा भुगत रहे हैं हम आम लोग जो कि परिस्थितियों से आँखे मूंदे, चाय की चुस्कियों पर चर्चा करके, मन की भड़ास को सरकार-पुलिस पर निकल कर, शांत हो कर सो जाते हैं, और यह उम्मीद करते हैं कि जो आज औरों के साथ हो रहा है, वो हमारे साथ कभी नहीं होगा।
   दुःख की बात है कि आज के विचारक न्यूज़ चैनल्स भी समस्या का सटीक विश्लेषण और समाधान नहीं सुझा पा रहे है। निसन्द्देह प्रशासन की सुस्ती की कीमत आम जनता को चुकानी पड़ रही है, और उसमे सुधार की अपार संभावनाएं हैं, परन्तु प्रशन यही भी है कि क्या कारण है हमारे समाज से एकाएक अपराधी, बलात्कारी व्यक्ति पैदा हो रहे है।
   कीड़े-मकौड़े बढ़ जाएँ तो उनकी रोकथाम के साथ उनके पैदा होने पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। गंदगी को चिन्हित करके साफ़ करना पड़ता हैं नहीं तो रोकथाम के बड़े बड़े उपाय भी धराशायी हो जाते हैं। हमारे ही पास-पड़ोस के लोग यदि अपराध करने लगें तो कहाँ तक पुलिस बुलाएँगे। क्योकि पुलिस तो स्वयं राजनीतिज्ञों की कठपुतली है ।
      ख़राब प्रशासन, लचर कानून व्यवस्था एक बड़ी परेशानी है । व्यक्ति को जब भय नहीं होता तो वह अपराध करने से नहीं हिचकता। उसे पता होता है कि पकड़ा क्या तो या तो रिश्वत दे कर या सिफारिश लगा कर बच जाऊंगा । अदालत में केस चलता रहेगा और मैं जमानत पर मौज उडाता रहूंगा ।  राजनीतिज्ञों की छुपी पनाह में इस प्रकार अपराध फल फूल रहे हैं ।
       व्यक्ति में जब आदर्श और संवेदना मर जाती है तो उसके सामने एक ही लक्ष्य रहता हैं, किसी भी तरीके से पैसा कमाऊ और अय्याशी का जीवन जियूं  । वासना की आग जब प्रबल हो जाती है तब मान-मर्यादा सब उस आग में जल जाते हैं । फिर तो इंसान अपने कर्मों से शैतान को भी पीछे छोड़ देता है । धर्म के नाम पर जब विवेक की आँखों पर काली पट्टी बांध दी जाती हैं, तब उसकी सही-गलत की परिभाषा ही विकृत हो जाती है ।
       बचपन की अवस्था पूरे जीवन की नीवं होती है । इसी समय निर्धारित हो जाता हैं कि यह बच्चा पूत बनेगा या कुपूत । यदि हमारे देश की शिक्षा पद्धति इतनी व्यवस्थित एवं विकसित हो कि वो देश में पल रहे हर बच्चे किशोर तक पहुंचे एवं उसके अंतर्मन में आदर्शवादी जीवन, सद्भावना, सद्विचार, सद्चरित्र का रोपण कर सके तो भविष्य में पैदा हो सकने वाले अपराध की जड़ ही कट जाएगी । प्राचीन भारत में यह शिक्षा व्यवस्था ही थी कि हर मनुष्य सद्चरित्र एवं सुसंस्कारी बनता था । अब जब अपराधी ही न होंगे तो अपने आप अपराध भी नहीं होगा । कई विकसित राष्ट्र जैसे जापान, यूरोप इत्यादि अब इस विषय की गंभीरता समझ चुके हैं और तेजी से इस विषय पर काम कर  रहे हैं ।
       हमारे समाज अब सिर्फ विज्ञापन, व्यापार और मुनाफे की जगह बन कर रह गयी है। यहाँ से मर्यादा, संस्कार, नीति, विवेक, प्रेमभाव सर्वथा लोप होता चला है। विज्ञापनों की आंधी ऐसी है जिसमे आम आदमी भावनात्मक वेग में बह जाता हैं और बार बार दिखाएँ जा रहे झूठे वायदों से भरे विज्ञापनों को सच मान कर अपना-अपने परिवार का नुक्सान कर रहा है जिसमें लाभ काम और हानि अधिक रहती है ।
      हमारे समाज में बच्चे साथ में रहते हैं लेकिन फिल्म और टेलीविज़न पूर्णतः व्यस्कों को लक्ष्य बना करे दिखाया जाता है । अश्लीलता और हिंसा से भरे फिल्मे, विज्ञापन, कार्यक्रम, पत्रिका इत्यादि बच्चो में कोमल मन में बचपन से ही विष घोल देती हैं ।आज सनी लियोने के गानो पर डांस करने वाली बच्ची यह सोच लेती है कि हीरोइन बड़े लोग हैं वो जो करे सो सही । ऐसे में वो बड़ी हो कर सनी लियोने नहीं बनेगी तो और क्या अपेक्षा की जाएँ उनसे।         
        वासना एक आग की तरह है, इसे मर्यादित रखना परम आवश्यक हैं नहीं तो यह व्यक्ति के साथ में पूरे समाज को जला देती हैं ।  और आज इंटरनेट, स्मार्ट फ़ोन, फ़िल्में के माध्यम से अश्लीलता सर्वाधिक सुलभता से उपलब्ध हैं।  अश्लीलता हाथो हाथ बिकती है सो सारी फिल्मे उसी पर आधारित हैं, क्योकि उनका उद्देश मनोरंजन के नाम पर आपसे मुनाफा कामना मात्र है । बाकि सामाजिक दिशा धरा से कोई लेना देना नहीं । अशिक्षित व्यक्ति, अधकचरे मानस वाले किशोर/वयस्क, असयंमित जीवन जीने वाले पढ़े-लिखे लोग भी जो हानि लाभ नहीं समझते इस वासना की आग में आसानी से जल जाते हैं । चरित्र-संस्कार-मर्यादा क्या चीज़ होती हैं उन्हें ना किसी ने बताया, ना उन्होंने किसी को देख। उन्होंने सिर्फ यह देखा की स्त्री वासना पूर्ती का माध्यम है। फिर जो फिल्मो में देखते हैं उसे आदर्श सही मान जीवन में कर डालते है। हैवानियत की हदें पार कर जाते हैं ।
      समाज में आज व्यक्ति सिर्फ अपने से मतलब रखता हैं । सामाजिक ढांचा ही कुछ ऐसा विकृत हो चला है कि उसे कुछ सूझता ही नहीं । पडोसी पडोसी से कोई मतलब नहीं रखता ।  देश का एक वर्ग धनि बनता जा रहा है, तो एक बड़ा वर्ग गरीबी में रहता हुआ दूसरो को मज़े उडाता देख रहा है । फिर वह भी अमीरी भरा जीवन जीने के लियें अपराध करने से नहीं हिचकते ।
      सामाजिक जिम्मेदारी यह कहती हैं कि यदि आपके पास आवश्यकता से अधिक है जिसकी आपको जरूरत नहीं तो उसके उन्हें दान करदो जिन्हें उसकी सर्वाधिक जरूरत हो । यदि आप शिक्षित है तो कुछ समय गरीब बच्चो को महिलाओं को पढने में लगाएं।  आप के पास धन अधिक हैं तो उसे किसी की शिक्षा, ईलाज, भोजन का प्रबंध करें। आप के पास प्रतिभा है तो उसे किसी की परेशानी हल करने में लगाएं ।  यह सामाजिक जिम्मेदारी अनिवार्य है, जो इसका पालन नहीं करता उसके पास सबकुछ होते हुए भी हृदय में एक बैचैनी, मन में एक छटपटाहट, विकलता सदैव रहती है । उनकी अंतरात्मा सदैव उन्हें झंझोड़ती रहती हैं कि उठो कुछ करों । जीवन का सदुपयोग करों ।
        मित्रों हमारा देश हमारी जिम्मेदारी है। क्यों ना हम अपनी जिम्मेदारियों को अपने हाथ में लेलें । क्यों ना हम अपने समय-प्रतिभा-धन-शिक्षा को जरूरत मंदों की सेवा में लगाना शुरू करें । थोड़ा ही सही लेकिन करें  अवश्य । क्यों न हम फिल्म-टेलीविज़न-पत्रिका में परोसी जा रही अश्लीलता और हिंसा का विरोध करें और उन्हें बता दें कि हमारे बच्चों और समाज में जहर ना घोले, अपितु अपनी कला का सदुपयोग करे। बिना हिंसा-अश्लीलता का सहारा लियें अच्छा मनोरंजन बनायें और दिखाएँ । क्यों ना हम अशिक्षितों, अल्पसंख्यक, कमजोरों, बच्चो एवं महिलाओं के लियें  संस्कार और चरित्र पर आधारित शिक्षा वयवस्था खड़ी करें जो उन्हें अच्छा मनुष्य बनायें ।
      मित्रों अब केवल यही रास्ता हमारे सामने रह गया हैं। किसी और से उम्मीद करनी बेकार है, जो करना है हमें ही करना है। बच्चो महिलाओं की मूल्य आधारित शिक्षा से ही एक नहीं जिम्मेदार सद्चरित्र पीढ़ी का निर्माण होगा जो की अपराधी नहीं होगी, अपितु जब प्रशासन, सरकार, पुलिस में ही जाएगी तो वहां भी सत्य का पक्ष लेते हुए असत्य से लोहा लेगी ।  किसी और का मुँह मत देखियें स्वयं आगे बढ़िए। सेवा के राष्ट्र निर्माण के इस मार्ग पर जब आप एक कदम भी आगे बढ़एंगे, तो आप पाएंगे कि आप अकेले नहीं, और आप पाएंगे ईश्वर का अमूल्य आशीर्वाद जो आपके जीवन में आत्मिक सुख, जन प्रेम और चिरकालीन प्रसिद्धि बन कर आएगा ।

|| सर्वेः भवन्तु सुखिनः ||

Pratibha_Chetna_YugNirmaan

 हम अपने प्रतिभा एवं चेतना के स्तर अनुसार ही युग निर्माण कर पाते हैं ।


प्रतिभा का कर्म कुशलता से गहरा नाता है । हमारी प्रतिभा के अनुरूप अनुपूर सफलता हमें मिलती है ।  कुशलता, पुरुषार्थी, धीरता जैसे सद्गुण विकसित प्रतिभा में ही मिलते हैं । कहीं नौकरी के लियें भी जाते हैं तो सबसे पहले हमारी प्रतिभा ज्ञान की परीक्षा होती है । उसी के अनुसार हमें पद मिलता है । युग निर्माण जैसे बड़े कार्य में भी हम अपनी प्रतिभा अनुरूप ही जिम्मेदारी निभा सकते हैं । रामायण में  राम भक्त तो सभी रीछ-वानर थे परन्तु राम सेतु बनाने की प्रतिभा केवल नल-नील में ही थी, इसलियें उनका उल्लेख पूरी रामायण में अलग से है । इस प्रकार के अनेको दुष्कर कार्य है जिन्हें सम्पादित करने हेतु उच्चस्तरीय प्रतिभा-ज्ञान-अनुभव की आवश्यकता आती है ।
   उपनिषदों अनुसार समाज को प्रतिभा-कुशलता के चार स्तर में बाँटा गया है : शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण । इन्हें हम आज तक वर्ण वयवस्था के नाम पर और सामाजिक भेदभाव के नाम पर ही जानते आये हैं । वास्तविक में यह समाज के विभिन्न जिम्मेदारियों को सुनियोजित रूप से  करने हेतु प्रतिभा एवं कुशलता के वर्गीकरण थे।
  शूद्र का उद्देश्य था सेवा करना, ज्यादा दिमाग न लगा कर काम कर देना। वैश्य का उद्देश्य था संसाधनों का उचित नियोजन, कर्म संपादन, आवश्यक वस्तुओं का क्रय-विक्रय। क्षत्रिय का उद्देश्य है नियंत्रण, रक्षा, नेतृव प्रदान  करना। ब्राह्मण का उद्देश्य था शिक्षा, ज्ञान का संचार, धर्म का आचरण एवं स्थापना की जिम्मेदारी ।
  इस प्रकार का सामाजिक वर्गीकरण करके प्राचीन समय में सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती थी, जो अब पूर्णतः विकृत हो चुकी है ।

      चेतना का अर्थ है मन-बुद्धि-चित्त-अहं रुपी अंतःचतुष्ट द्वारा छन कर आरहा आत्मा का प्रकाश । जितना सघन तमसापूर्ण अंतःकरण उतनी कम चेतना । जितना उज्जवल अंतःकरण उतना ही उज्जवल पवित्र तेजस्वी चेतना ।  चेतना का युग निर्माण के ईश्वरीय कार्य में अहम स्थान है ।  प्रतिभाशाली होना एक बात है और उसे ईश्वरीय परोपकारी कार्य में लगाना अलग बात है । मौजूदा समाज में प्रतिभावानों की कमी नहीं, लेकिन वासना-तृष्णा-अहंता से डूबे हुए अंतःकरण वाले लोगो में उतनी पवित्र चेतना ही नहीं कि वे अपनी प्रतिभा-ज्ञान-श्रम-पैसे को लोकोपकारी कार्य में नियोजित करें । युग की प्रतिभा सिर्फ अपने पेट-परिवार के  लियें ही तो जी रही है ।
      उपनाशिदों ने चेतना के स्तर अनुसार मनुष्य को चार वर्ग में बाँटा है : अर्थी, अर्थार्थी, जिज्ञासु, ज्ञानी ।
अर्थी अर्थात अपने स्वार्थ के लियें पेट-परिवार के लियें जीने वाले लोग । अंहकार की सघनता के कारण ज्ञान का इन्हें कोई भान नहीं होता । विवेक का जागरण नहीं होता । स्वार्थ जनित विषयों में ही सर्वथा रुचि रखते हैं यह लोग ।
अर्थार्थी व्यक्ति अर्थी से कुछ बेहतर होते हैं । अंहकार की पकड़ से कुछ बचे रहते हैं । अपने स्वार्थ के अलावा दूसरों के प्रति भी कुछ संवेदना रखते हैं । विवेक का जागरण होना आरम्भ होजाता है । वर्तमान समय के ज्यादातर व्यक्ति प्रतिभाशाली अर्थार्थी स्तर के हैं जो कि पढ़े लिखें तो हैं परन्तु विवेकवान संवेदनशील काम है और सिर्फ अपने पेट-परिवार के लियें जी रहे है ।
जिज्ञासु व्यक्ति में विवेक का जागरण हो जाता है । स्वार्थ के बंधन कटने लगते हैं ।  परोपकारी जीवन जीने का आरम्भ यहाँ से हो जाता है । आत्मा-परमात्मा के विषय में बोध जागृत होता है एवं उसके लियें प्रयत्नशील होना शुरू हो जाते हैं । शिष्य होने का स्थान यही है । महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अर्थार्थी से खींच कर पहले जिज्ञासु बनाया था, फिर उसे गीता का ज्ञान दिया । समर्पण होने का स्थान यही है ।
ज्ञानी व्यक्ति संसार का पालन करते हैं । प्रकृति ब्रह्माण्ड के समस्त भेद उन्हें ज्ञात होते है । सांसारिक कर्मो कर करते हुए भी वह उनके बंधनों में नहीं फंसते । दुःख सहते हुए भी संसार की सेवा करना उनका जीवन उद्देश्य होता है ।  ऐसे व्यक्ति पूजनीय वंदनीय होते हैं  ।

    युगऋषि नें मनुष्य के व्यक्तिव को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रतिभा-चेतना के इन समायोजन से व्यक्ति देवत्व या दानवत्व का वरन करता है । देवत्व अर्थात : मनुष्यता, महामानव, देवमानव, प्रज्ञावतार । दानवत्व अर्थात: नरपामर, नर पशु, नर पिचाश, नर दैत्य।

       प्रतिभा और ज्ञान के इन 4-4 स्तर को यदि हम व्यवहारिक जीवन में ढूंढने का प्रयत्न करने तो हमें हर व्यक्ति के व्यक्तित्व कर पूर्वज्ञान हो जायेगा।  ओसामा बिन लादेन  क्षत्रिय-अर्थार्थी-नरपिचाश  स्तर का था जो अपनी प्रतिभा का उपयोग आंतकवाद का संगठन बनाने एवं धर्म के नाम पर हिंसा करने का मार्ग अपनाता था ।
हिटलर भी क्षत्रिय-नरपिचाश-अर्थी स्तर का था । अपने मानसिकता के लियें उसने विश्व युद्ध किया लाखों लोगो की जाने ली ।
महात्मा ग़ांधी ब्राह्मण-ज्ञानी-महामानव स्तर के थे । अपना जीवन स्वतंत्रता एवं हरिजन सेवा को समर्पित कर दिया।
आज के समय के फिल्मकार-साहित्यकार ज्ञानी-अर्थी-नरपशु स्तर के हैं । अपनी प्रतिभा को स्वार्थ में उपयोग कर रहे हैं भले ही समाज को नुक्सान हो ।

 युगऋषि ने युग निर्माण योजना के चरण बताते हुए कहा प्रचारात्मक, रचनात्मक, संघर्षात्मक, निर्माणात्मक गतिविधियाँ बताई । हमारे सारे कार्यक्रम इन्हीं वर्गों में निमित रहते है । किन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि प्रत्येक वर्ग की अपनी प्रतिभा चेतना की अब्श्यकता हैं । यहाँ हम युग निर्माण के उसी वर्ग का कार्य कर पाते हैं जितनी प्रतिभा चेतना हम में है ।
                                                               प्रचारात्मक+रचनात्मक+संघर्षात्मक = निर्माणात्मक

प्रचार के लियें शूद्र-अर्थार्थी स्तर की प्रतिभा काफी है ।
रचना के लियें वैश्य-जिज्ञासु स्तर तक की प्रतिभा की आवश्यकता  रहती है ।
संघर्ष के लियें क्षत्रिय-जिज्ञासु स्तर तक की प्रतिभा चाहियें ।
निर्माण के लियें ब्राह्मण-ज्ञानी स्तर की प्रतिभा-चेतना चाहियें ।

युग निर्माण में पूर्णता तभी आती है, जब उसमे प्रचारात्मक+रचनात्मक+संघर्षात्मक सभी एक साथ कार्य करते हैं । अन्यथा पूर्ण युगनिर्माण नहीं हो पता ।
शायद यही कारन है कि वर्षो से हम प्रचारात्मक-रचात्मक कार्य तो कर रहे हैं, परंतु युग निर्माण होते नहीं दीखता । कहीं कुछ कमी है ।

सुन्दर यज्ञ सञ्चालन के लियें वैश्य-ज्ञानी स्तर की प्रतिभा चाहियें । अन्य रचनात्मक कार्यों के लियें भी यही आवश्यक है ।
संगठन निर्माण के लियें क्षत्रिय-ज्ञानी-महामानव स्तर की प्रतिभा चेतना चाहिए । हमारे क्षेत्र में मजबूत संगठन नहीं तो उसका कारण यह है की उपयुक्त प्रतिभा चेतना वाले व्यक्ति नहीं ।
व्यक्ति निर्माण के लियें ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव स्तर की प्रतिभा चेतना चाहियें । हम युग निर्माण का मुख्य आधार व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण में इसलियें पीछे हैं क्योकि उपयुक्त प्रतिभाचेतना के व्यक्तियों की नितांत कमी है ।

अतः मित्रों गुरु कार्य करने के साथ यह भी नितांत आवश्यक है कि हम अपनी प्रतिभा चेतना को दिनोदिन बढ़ाते चले । तभी तो  हमारे युगनिर्माण का स्तर बढ़ेगा । युगऋषि अपने दिव्य अनुदानों के साथ तैयार बैठे हैं, आपको आगे बढ़ने के लियें । लेकिन कोई  सामने तो आये, अनुदान लेने के लिए पराक्रम तो दिखाए ।  युगऋषि का स्वप्न रहा है हम सभी को ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव बनाना । ताकि हम व्यक्ति निर्माण-परिवार निर्माण युग निर्माण का कार्य पूर्ण रूप से कर चले । और यह पूर्णतः संभव है । तभी तो युग निर्माण होगा ।
     सप्त सूत्री कार्यक्रम युग संग्राम का पूर्व अभ्यास जैसे हैं । इन अभ्यासों द्वारा हम स्वयं को ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव बना सकते हैं । आने वाले महान समय में युग संग्राम का भीषण चक्र जो घूमेगा, बौद्धिक-नैतिक-आध्यात्मिक क्रांति की जो बहार आएगी, उसमे अग्रगामी मोर्चा तो यही ज्ञानी-योगी-ब्राह्मण की फ़ौज संभालेगी ।  देवत्व कर वरदान तैयार है, आवश्यकता है विषम समय में शौर्य दिखने की । प्रतिभा-चेतना-व्यक्तित्व को महानतम बनाने की ।।