Monday, July 6, 2015

Prayavaran Based Development

विकास का  प्रमुख आधार : पर्यावरण

शहरीकरण के इस दौर में वर्तमान सरकार विकास-विकास की बात कर रही है, smart cities बनाने  की बात कर  रही है, शहरों को और बढ़ाने की बात कर रही है, सडकों के निर्माण कर दूरदराज के क्षेत्रो को जोड़ने की बात कर रही है । विकास की आवश्यकता हम सबको है लेकिन यह जान लेना भी परम आवश्यक है कि विकास मतलब क्या ? क्या कंक्रीट की बिल्डिंग खड़े कर देना विकास है? क्या खेती की जमीनी लेकर उनपर मकान बना देना विकास है? क्या हरे-भरे पेड़ काट कर सड़क निर्माण करना विकास है?
जीवन को सुविधाजनक, सुरक्षित, शिक्षित, आनन्दायक बनाने के लियें हम जीवन भर मेहनत करते है।  अच्छा बड़ा मकान, अच्छी नौकरी/व्यापार,  अच्छी गाडी,  मनोरंजन के लियें सुविधाएँ, अच्छी शिक्षा,  सुरक्षा-चिकित्सा की सुविधाएँ यह सब हम पाना चाहते है, निश्चित रूप से सरकार भी अपनी योजनाओं द्वारा हमें यही देना चाहती है ।
  लेकिन विकास के इस दिव्यस्वप्न में हम यह क्यों भूल जाते हैं  एक मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है  सांस लेने के लियें साफ़ हवा, छायादार वृक्ष,  खाने के लियें स्वस्थ अनाज, पीने के लियें साफ़ पानी ।  बिना साफ़ हवा, पानी, अनाज के हम ऊपर दी गयी किसी भी विकास योजना के बारे में सोच भी नहीं सकते ।   और दुःख इसी बात का है कि हम अपनी विकास की तमाम योजनाओं में  पर्यावरण, साफ़ स्वस्थ हवा, पानी, अनाज  के लियें कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे ।  हम पश्चिमी देशों के पीछे विकास की दौड़ में अदूरदर्शी हो  दौड़ रहे हैं,  बिना यह सोचे कि हमारे देश की मनःस्थिति परिस्थिति अन्य देशों से भिन्न है ।
    गाँवों से  बने इस देश की मूल भूत ईकाई, गाँव हैं । जहाँ खेती होती हैं, जहाँ से अनाज मिलता है, जहाँ देश का सर्वाधिक प्रतिशत वन्य जीवन/पर्यावरण आता है । पिछले कई दशकों की गड्बडों से गावों में खेती में भारी कमी आई है, किसान आज भी अशिक्षित एवं असहाय है। हर वर्ष मानसून की प्रताड़ना और सरकार की उपेक्षा से  आहत किसान आत्महत्या करता है । जब हम शहर में एयरकंडीशन में बैठ कर पिज्जा खा रहे होते हैं तब हमारे लियें अनाज पैदा कर रहा किसान, मानसून की प्रताड़ना और सरकार की उपेक्षा से दुखी अपने परिवार को सुखद भविष्य की झूठी सांत्वना दे रहा होता है ।  खेती की  दुर्दशा के कारण हर वर्ष बड़ी संख्या में किसान खेती छोड शहर का रुख करते हैं जिससे अपने परिवार का पेट तो भर सकें ।  इस कारण शहरों में जनसँख्या अत्यधिक रूप से बढ़ती जा रही है ,  जिससे महंगाई, प्रदूषण, अपराध सब तेजी  से बढ़ रहा है ।
   सड़क,  मकान,  फैक्ट्री इत्यादि बनाने के लिए तेजी से खेती की उपजाऊ जमीन ले कर , हरे भरे पेड़ काट कर हम विकास कररहे है। किसान को खेती से हटा कर उसे शहर आकर कीड़े-मकौड़े का जीवन जीने के लियें मजबूर कर रहे हैं।  गावं खत्म हो रहे हैं और शहर मोटे होते जा रहे हैं । और इस विकास में हम आधुनिक भारत की कल्पना कररहेँ है । कृपया आप ही बताएं ये  कल्पना सुखद होगी या भयावह ?
       इस आधुनिक भारत में हमारे पास सुन्दर मकान तो  होगा लेकिन पीने का पानी समाप्त हो गया होगा ।  हम शिक्षित तो होंगें लेकिन खाने के लियें समुचित पोषक तत्वों से युक्त अनाज ही नहीं होगा ।  हमारे पास पैसे तो होंगे लेकिन लेने के लियें साफ़ हवा नहीं होगी ।  और यह कोई ज्यादा दूर की बात नहीं दिल्ली, बंगलोरे जैसे शहर इस रस्ते पर चल पड़े हैं ।
    हमें चाहियें ऐसी योजना जिसमें भारत के गावँ उजड़े नहीं सुधरें।  कृषि का क्षेत्र  विज्ञानं की मदद से बेहतर बने । किसान आत्महत्या ना करें और ना ही खेती छोड़े, अपितु खेती से ही अपने परिवार का सुखद भविष्य बनाये ।  निम्न वर्ग को शिक्षित कर उन्हें जनसँख्या बढ़ाने की जगह जीवन को बेहतर बनाने का मार्ग दिखाएँ ।  सड़क बनाने हेतु पेड़ काटने की जगह उन्हें विस्थापित किया जाये और जितने पेड़  काटने हो उससे अधिक पेड़ पहले लगाये जाएँ ।  
  हमें आधुनिक भारत की कल्पना में पर्यावरण को प्रथम स्थान पर रखना ही होगा, क्योकि बिना इस आधार के बाकी सभी विकास बेमाने हैं । यह तथ्य हमारे निजी जीवन में भी लागू होता है। अपने जीवन में विकास की योजनाओं में भी हमें पर्यावरण को प्रथम स्थान देना होगा । अपने घर में खुले मैदान में वृक्ष लगाएं, स्वास्थ्य संवर्धन हेतु साफ़ हवा, मिटटी में योग प्राणायाम करें, अपने तन-मन को स्वस्थ विकसित  करें।  जब पेड़ अपनी छाया, फल, हवा हमें सरकार के द्वारा नहीं अपितु सीधे देते हैं तो फिर हम वृक्ष लगाने के लियें  सरकार का मुँह क्यों देखें ।   ज्यादा ना सही लेकिन अपने घर में पड़ोस में पर्यावरण को  बचाने एवं बढ़ाने के लियें ठोस कदम तो हम  उठा ही सकते हैं । यही आज के विषम समय  की मांग भी है ।








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