Friday, May 1, 2015

Pratibha_Chetna_YugNirmaan

 हम अपने प्रतिभा एवं चेतना के स्तर अनुसार ही युग निर्माण कर पाते हैं ।


प्रतिभा का कर्म कुशलता से गहरा नाता है । हमारी प्रतिभा के अनुरूप अनुपूर सफलता हमें मिलती है ।  कुशलता, पुरुषार्थी, धीरता जैसे सद्गुण विकसित प्रतिभा में ही मिलते हैं । कहीं नौकरी के लियें भी जाते हैं तो सबसे पहले हमारी प्रतिभा ज्ञान की परीक्षा होती है । उसी के अनुसार हमें पद मिलता है । युग निर्माण जैसे बड़े कार्य में भी हम अपनी प्रतिभा अनुरूप ही जिम्मेदारी निभा सकते हैं । रामायण में  राम भक्त तो सभी रीछ-वानर थे परन्तु राम सेतु बनाने की प्रतिभा केवल नल-नील में ही थी, इसलियें उनका उल्लेख पूरी रामायण में अलग से है । इस प्रकार के अनेको दुष्कर कार्य है जिन्हें सम्पादित करने हेतु उच्चस्तरीय प्रतिभा-ज्ञान-अनुभव की आवश्यकता आती है ।
   उपनिषदों अनुसार समाज को प्रतिभा-कुशलता के चार स्तर में बाँटा गया है : शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण । इन्हें हम आज तक वर्ण वयवस्था के नाम पर और सामाजिक भेदभाव के नाम पर ही जानते आये हैं । वास्तविक में यह समाज के विभिन्न जिम्मेदारियों को सुनियोजित रूप से  करने हेतु प्रतिभा एवं कुशलता के वर्गीकरण थे।
  शूद्र का उद्देश्य था सेवा करना, ज्यादा दिमाग न लगा कर काम कर देना। वैश्य का उद्देश्य था संसाधनों का उचित नियोजन, कर्म संपादन, आवश्यक वस्तुओं का क्रय-विक्रय। क्षत्रिय का उद्देश्य है नियंत्रण, रक्षा, नेतृव प्रदान  करना। ब्राह्मण का उद्देश्य था शिक्षा, ज्ञान का संचार, धर्म का आचरण एवं स्थापना की जिम्मेदारी ।
  इस प्रकार का सामाजिक वर्गीकरण करके प्राचीन समय में सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती थी, जो अब पूर्णतः विकृत हो चुकी है ।

      चेतना का अर्थ है मन-बुद्धि-चित्त-अहं रुपी अंतःचतुष्ट द्वारा छन कर आरहा आत्मा का प्रकाश । जितना सघन तमसापूर्ण अंतःकरण उतनी कम चेतना । जितना उज्जवल अंतःकरण उतना ही उज्जवल पवित्र तेजस्वी चेतना ।  चेतना का युग निर्माण के ईश्वरीय कार्य में अहम स्थान है ।  प्रतिभाशाली होना एक बात है और उसे ईश्वरीय परोपकारी कार्य में लगाना अलग बात है । मौजूदा समाज में प्रतिभावानों की कमी नहीं, लेकिन वासना-तृष्णा-अहंता से डूबे हुए अंतःकरण वाले लोगो में उतनी पवित्र चेतना ही नहीं कि वे अपनी प्रतिभा-ज्ञान-श्रम-पैसे को लोकोपकारी कार्य में नियोजित करें । युग की प्रतिभा सिर्फ अपने पेट-परिवार के  लियें ही तो जी रही है ।
      उपनाशिदों ने चेतना के स्तर अनुसार मनुष्य को चार वर्ग में बाँटा है : अर्थी, अर्थार्थी, जिज्ञासु, ज्ञानी ।
अर्थी अर्थात अपने स्वार्थ के लियें पेट-परिवार के लियें जीने वाले लोग । अंहकार की सघनता के कारण ज्ञान का इन्हें कोई भान नहीं होता । विवेक का जागरण नहीं होता । स्वार्थ जनित विषयों में ही सर्वथा रुचि रखते हैं यह लोग ।
अर्थार्थी व्यक्ति अर्थी से कुछ बेहतर होते हैं । अंहकार की पकड़ से कुछ बचे रहते हैं । अपने स्वार्थ के अलावा दूसरों के प्रति भी कुछ संवेदना रखते हैं । विवेक का जागरण होना आरम्भ होजाता है । वर्तमान समय के ज्यादातर व्यक्ति प्रतिभाशाली अर्थार्थी स्तर के हैं जो कि पढ़े लिखें तो हैं परन्तु विवेकवान संवेदनशील काम है और सिर्फ अपने पेट-परिवार के लियें जी रहे है ।
जिज्ञासु व्यक्ति में विवेक का जागरण हो जाता है । स्वार्थ के बंधन कटने लगते हैं ।  परोपकारी जीवन जीने का आरम्भ यहाँ से हो जाता है । आत्मा-परमात्मा के विषय में बोध जागृत होता है एवं उसके लियें प्रयत्नशील होना शुरू हो जाते हैं । शिष्य होने का स्थान यही है । महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अर्थार्थी से खींच कर पहले जिज्ञासु बनाया था, फिर उसे गीता का ज्ञान दिया । समर्पण होने का स्थान यही है ।
ज्ञानी व्यक्ति संसार का पालन करते हैं । प्रकृति ब्रह्माण्ड के समस्त भेद उन्हें ज्ञात होते है । सांसारिक कर्मो कर करते हुए भी वह उनके बंधनों में नहीं फंसते । दुःख सहते हुए भी संसार की सेवा करना उनका जीवन उद्देश्य होता है ।  ऐसे व्यक्ति पूजनीय वंदनीय होते हैं  ।

    युगऋषि नें मनुष्य के व्यक्तिव को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रतिभा-चेतना के इन समायोजन से व्यक्ति देवत्व या दानवत्व का वरन करता है । देवत्व अर्थात : मनुष्यता, महामानव, देवमानव, प्रज्ञावतार । दानवत्व अर्थात: नरपामर, नर पशु, नर पिचाश, नर दैत्य।

       प्रतिभा और ज्ञान के इन 4-4 स्तर को यदि हम व्यवहारिक जीवन में ढूंढने का प्रयत्न करने तो हमें हर व्यक्ति के व्यक्तित्व कर पूर्वज्ञान हो जायेगा।  ओसामा बिन लादेन  क्षत्रिय-अर्थार्थी-नरपिचाश  स्तर का था जो अपनी प्रतिभा का उपयोग आंतकवाद का संगठन बनाने एवं धर्म के नाम पर हिंसा करने का मार्ग अपनाता था ।
हिटलर भी क्षत्रिय-नरपिचाश-अर्थी स्तर का था । अपने मानसिकता के लियें उसने विश्व युद्ध किया लाखों लोगो की जाने ली ।
महात्मा ग़ांधी ब्राह्मण-ज्ञानी-महामानव स्तर के थे । अपना जीवन स्वतंत्रता एवं हरिजन सेवा को समर्पित कर दिया।
आज के समय के फिल्मकार-साहित्यकार ज्ञानी-अर्थी-नरपशु स्तर के हैं । अपनी प्रतिभा को स्वार्थ में उपयोग कर रहे हैं भले ही समाज को नुक्सान हो ।

 युगऋषि ने युग निर्माण योजना के चरण बताते हुए कहा प्रचारात्मक, रचनात्मक, संघर्षात्मक, निर्माणात्मक गतिविधियाँ बताई । हमारे सारे कार्यक्रम इन्हीं वर्गों में निमित रहते है । किन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह है कि प्रत्येक वर्ग की अपनी प्रतिभा चेतना की अब्श्यकता हैं । यहाँ हम युग निर्माण के उसी वर्ग का कार्य कर पाते हैं जितनी प्रतिभा चेतना हम में है ।
                                                               प्रचारात्मक+रचनात्मक+संघर्षात्मक = निर्माणात्मक

प्रचार के लियें शूद्र-अर्थार्थी स्तर की प्रतिभा काफी है ।
रचना के लियें वैश्य-जिज्ञासु स्तर तक की प्रतिभा की आवश्यकता  रहती है ।
संघर्ष के लियें क्षत्रिय-जिज्ञासु स्तर तक की प्रतिभा चाहियें ।
निर्माण के लियें ब्राह्मण-ज्ञानी स्तर की प्रतिभा-चेतना चाहियें ।

युग निर्माण में पूर्णता तभी आती है, जब उसमे प्रचारात्मक+रचनात्मक+संघर्षात्मक सभी एक साथ कार्य करते हैं । अन्यथा पूर्ण युगनिर्माण नहीं हो पता ।
शायद यही कारन है कि वर्षो से हम प्रचारात्मक-रचात्मक कार्य तो कर रहे हैं, परंतु युग निर्माण होते नहीं दीखता । कहीं कुछ कमी है ।

सुन्दर यज्ञ सञ्चालन के लियें वैश्य-ज्ञानी स्तर की प्रतिभा चाहियें । अन्य रचनात्मक कार्यों के लियें भी यही आवश्यक है ।
संगठन निर्माण के लियें क्षत्रिय-ज्ञानी-महामानव स्तर की प्रतिभा चेतना चाहिए । हमारे क्षेत्र में मजबूत संगठन नहीं तो उसका कारण यह है की उपयुक्त प्रतिभा चेतना वाले व्यक्ति नहीं ।
व्यक्ति निर्माण के लियें ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव स्तर की प्रतिभा चेतना चाहियें । हम युग निर्माण का मुख्य आधार व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण में इसलियें पीछे हैं क्योकि उपयुक्त प्रतिभाचेतना के व्यक्तियों की नितांत कमी है ।

अतः मित्रों गुरु कार्य करने के साथ यह भी नितांत आवश्यक है कि हम अपनी प्रतिभा चेतना को दिनोदिन बढ़ाते चले । तभी तो  हमारे युगनिर्माण का स्तर बढ़ेगा । युगऋषि अपने दिव्य अनुदानों के साथ तैयार बैठे हैं, आपको आगे बढ़ने के लियें । लेकिन कोई  सामने तो आये, अनुदान लेने के लिए पराक्रम तो दिखाए ।  युगऋषि का स्वप्न रहा है हम सभी को ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव बनाना । ताकि हम व्यक्ति निर्माण-परिवार निर्माण युग निर्माण का कार्य पूर्ण रूप से कर चले । और यह पूर्णतः संभव है । तभी तो युग निर्माण होगा ।
     सप्त सूत्री कार्यक्रम युग संग्राम का पूर्व अभ्यास जैसे हैं । इन अभ्यासों द्वारा हम स्वयं को ब्राह्मण-ज्ञानी-देवमानव बना सकते हैं । आने वाले महान समय में युग संग्राम का भीषण चक्र जो घूमेगा, बौद्धिक-नैतिक-आध्यात्मिक क्रांति की जो बहार आएगी, उसमे अग्रगामी मोर्चा तो यही ज्ञानी-योगी-ब्राह्मण की फ़ौज संभालेगी ।  देवत्व कर वरदान तैयार है, आवश्यकता है विषम समय में शौर्य दिखने की । प्रतिभा-चेतना-व्यक्तित्व को महानतम बनाने की ।।




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