Desires-Expectations
Desires हमारे जीवन में अहम स्थान रखते हैं। अनेक Desires के वशीभूत हो हम लोभ-मोह करते हैं, कर्म करते हैं, प्रसन्न / दुखी होते हैं।श्रुष्टि के नियम के अंतर्गत Desires हमारे चित्त वृतियों के अनुरूप प्रकट होते हैं; जब तक हमारे चित्त में अनेक कर्म संस्कार हैं, तब तक वह चित्त वृति अनेक Desires के रूप में प्रकट होती।
Expectation Desires का वह रूप है जो हम औरों से करते हैं। मेरी पत्नी ऐसा ही करे, मेरा बच्चा मेरे हिसाब से चले, मुझे मेरे मनपसंद सहकर्मी मिले इत्यदि। Expectations भी हमारे चित्त वृतियों का प्रकटीकरण है।
Desires-Expectations पर आधारित सुख-दुःख एक उत्तेजना मात्र होते हैं जो हमें पूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं। हमने बचपन से मात्र इसी उत्तेजना को देखा अनुभव किया तो इसे ही एक मात्र सच्चाई मानते हैं, यह सही नहीं हैं।
ईश्वरी विधान है कि जब हम कोई इच्छा करते हैं, तो ब्रह्माण्डीय शक्ति उस इच्छा को पूर्ण करने हेतु जुट जाती है; परन्तु अनेक इच्छाओं की इस भीड़ में जहाँ हमारी कई इच्छाएं एक दुसरे के परस्पर विरोधी हैं, ब्रह्माण्डीय शक्ति किसी भी इच्छा को पूर्ण नहीं कर पाती। हम सुख की इच्छा करते हैं तो ईश्वर हमारी इच्छा को ईश्वरीय विधान अनुसार पूर्ण बनाते हुए उसमें सुख+दुःख जोड़ कर देते हैं । फिर यह हमारे कर्म है कि उस इच्छा में से हमें सुख का भाग मिल पता हैं या केवल दुःख वाला । बाकि का बचा हुआ स्वप्नोक में भोग कर नष्ट हो जाता है। अतः Desires-Expectations की आग में जलने में कोई समझदारी नहीं।
वास्तविक आनंद को ढूंढता हमारा चंचल मन, परम आनंद को प्राप्त होने हेतु सदैव चंचल रहता है, छटपटाता रहता है। Desires-Expectations में जब उसे आनंद के temporary स्वरुप सुख मिलता है तो अज्ञानतावश उसे ही परम सत्य मान कर लिप्त हो जाता है। यही वह कभी ख़त्म न होने वाली वासनाओं-तृष्णाओं के चक्र में फँस जाता है।
साधक को चाहियें वह चित्त से उठते हुए इन Desires-Expectations में लिप्त न हो अपितु निर्लिप्त भाव से इन्हें उठने एवं गिरने दे और विवेकवान हो अपने कर्तव्य कर्म का निर्वाह करें। अध्यात्म के पथिकों के लियें यही मार्ग श्रेयष्कर है। इस प्रकार के कर्मयोग द्वारा चित्त शुद्धि स्वतः होती चली जाएगी एवं साधक वासना-तृष्णा के भंवर से बचकर परम आनंद को प्राप्त होगा।
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