सांख्य का अर्थ है जानना एवं योग का अर्थ है करना । सांख्य आंतक्रिया है और योग बहिक्रिया । श्वास की साधना योग की सर्वोत्तम साधना है । जो काम भी करें उसे होशपूर्वक करें, अलग से समय देने की आवश्यकता नहीं । भोजन, स्नान, बात कुछ भी करें तो होश में करें । सांख्य का कहना है कि जब तक जीवन है तबतक शरीर में एक चीज निरंतर बराबर और हर क्षण चल रही है और वह चीज है श्वास । होशपूर्वक लें जाये श्वास को । इसी प्रकार होशपूर्वक निकले श्वास को । कहने का मतलब यह है कि श्वास, प्रश्वास की सतत क्रिया आपके होश में होना चाहियें । इसका परिणाम होगी कि आपका ज्ञान निरंतर लगेगा बढ़ने , श्वास प्रश्वास पर जितना आपका ध्यान सजग होगा, निष्ठापूर्वक होगा और होगा होश में उसी के अनुसार आपके भीतर बढ़ने लगेगा ज्ञान । यदि श्वास की साधना इस प्रकार केवल एक घंटे सूर्योदय के समय नित्य आप करें तो निश्चित सांख्य अपने आप खुल जायेगा आपके लियें इसमें संदेह नहीं ।
योग का पहला उद्देश्य यही है कि प्राणायाम के द्वारा प्राणों को पूरी तरह से शुद्ध करलेना । योग कहता है कि श्वास पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं । श्वास की तीव्रता होनी चाहिए । आपके भीतर श्वास की तीव्रता का आघात पहुचना चाहियें । जितना बड़ा आघात होगा , जितनी गहरी चोट लगेगी उतनी ही मूर्छा टूटेगी और चेतना का जागरण होगा और अपनी क्रियाओं के प्रति आप उतना ही होंगे सजग इतना ही नहीं कम हो जाएगी आपकी नींद और एक ऐसा समय आएगा जब नींद की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं रहेगी आपको और प्राप्त हो जाएगी सहज समाधी जो कि सोलह समाधियों में प्रथम समाधी है । आवश्यकता है होश में जीने की नित्य १-४ घंटे स्मृति योग-श्वास प्रतिश्वास पर ध्यान देने की ।
योग-तन्त्र का प्रथम अध्याय है: प्राण उर्जा | होश मे ना जीना ही इसमे सबसे बड़ी बाधा है | योग कहता है कि प्राणायाम के द्वारा प्राण को पूर्णतः शुद्ध-परिमार्जित करलें | श्वास-प्रतीश्वास का ध्यान रखते हुए होश मे जीवन जियो | इसका परिणाम ज्ञान वृढ़ि में होगा जो आपको सहज समधी मे ले जाता है |
योग-तंत्र का दूसरा अध्याय है: मनोनिग्रह | मनोनिग्रह मे बाधा है कल्पना | ईश्वरीय विचारो को पूर्णतः आत्मसात करके हम कल्पना को संयमित कर पाएँगे, जिससे उपलब्ध होता है मनोनिग्रह |
प्रत्याहार की साधना वस्तुतः मनोनिग्रह की साधना है | व्यर्थ की चीज़ो से अपने समस्त इंद्रियों एवं मन को अलग रखना एवं उपयोगी चीज़ो से सतत प्राण उर्जा ग्रहण करते रहना प्रत्याहार का अभ्यास है, जो की २४ घंटे करते रहना पड़ता है | इसके बाद आती है ध्यान की अवस्था जिसमें साधक बिना प्रत्याहार सिद्ध हुए नही जा सकता | (page 250)
मन के दो भाग ; चेतना , अवचेतन
चेतन स्थूल, वासना और शूक्ष्म शरीर से जुड़ा है और अचेतन आत्मा से.
चित्त के तल है बैखरी(शब्द), मध्यमा(विचार), पश्चयंती(रूप, आत्मा / देवता के साकार दर्शन), परा (समाधि, मन चेतन अवस्था से अवचेतन रूप मे आ जाता है) पेज 260
संकल्प्वान होना योग की प्रथम आवश्यकता है | मन के साथ आप जिस भी कार्य को जोड़ेंगे उसमे भ्रम रहेगा, संदेह रहेगा, चिंता रहेगी तनाव रहेगा कि सफलता मिलेगी भी या नही | लेकिन आप उसी कार्य को दृढ़-निश्चय हो संकल्प के साथ
करेंगे, तो संदेह, भ्रम, आदि उत्पन्न होंगे ही नहीं | क्योकि संदेह, भ्रम, शंका, दुविधा, तनाव चिंता आदि तो मन के विषय हैं, संकल्प के नहीं | इसलिए योग में संकल्प का विशेष स्थान है | सामान्य लोग मन के साथ जीते हैं और योगी / साधक संकल्प के साथ जीते हैं |
आभार : आवाहन, अरुण कुमार शर्मा जी
योग का पहला उद्देश्य यही है कि प्राणायाम के द्वारा प्राणों को पूरी तरह से शुद्ध करलेना । योग कहता है कि श्वास पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं । श्वास की तीव्रता होनी चाहिए । आपके भीतर श्वास की तीव्रता का आघात पहुचना चाहियें । जितना बड़ा आघात होगा , जितनी गहरी चोट लगेगी उतनी ही मूर्छा टूटेगी और चेतना का जागरण होगा और अपनी क्रियाओं के प्रति आप उतना ही होंगे सजग इतना ही नहीं कम हो जाएगी आपकी नींद और एक ऐसा समय आएगा जब नींद की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं रहेगी आपको और प्राप्त हो जाएगी सहज समाधी जो कि सोलह समाधियों में प्रथम समाधी है । आवश्यकता है होश में जीने की नित्य १-४ घंटे स्मृति योग-श्वास प्रतिश्वास पर ध्यान देने की ।
योग-तन्त्र का प्रथम अध्याय है: प्राण उर्जा | होश मे ना जीना ही इसमे सबसे बड़ी बाधा है | योग कहता है कि प्राणायाम के द्वारा प्राण को पूर्णतः शुद्ध-परिमार्जित करलें | श्वास-प्रतीश्वास का ध्यान रखते हुए होश मे जीवन जियो | इसका परिणाम ज्ञान वृढ़ि में होगा जो आपको सहज समधी मे ले जाता है |
योग-तंत्र का दूसरा अध्याय है: मनोनिग्रह | मनोनिग्रह मे बाधा है कल्पना | ईश्वरीय विचारो को पूर्णतः आत्मसात करके हम कल्पना को संयमित कर पाएँगे, जिससे उपलब्ध होता है मनोनिग्रह |
प्रत्याहार की साधना वस्तुतः मनोनिग्रह की साधना है | व्यर्थ की चीज़ो से अपने समस्त इंद्रियों एवं मन को अलग रखना एवं उपयोगी चीज़ो से सतत प्राण उर्जा ग्रहण करते रहना प्रत्याहार का अभ्यास है, जो की २४ घंटे करते रहना पड़ता है | इसके बाद आती है ध्यान की अवस्था जिसमें साधक बिना प्रत्याहार सिद्ध हुए नही जा सकता | (page 250)
मन के दो भाग ; चेतना , अवचेतन
चेतन स्थूल, वासना और शूक्ष्म शरीर से जुड़ा है और अचेतन आत्मा से.
चित्त के तल है बैखरी(शब्द), मध्यमा(विचार), पश्चयंती(रूप, आत्मा / देवता के साकार दर्शन), परा (समाधि, मन चेतन अवस्था से अवचेतन रूप मे आ जाता है) पेज 260
संकल्प्वान होना योग की प्रथम आवश्यकता है | मन के साथ आप जिस भी कार्य को जोड़ेंगे उसमे भ्रम रहेगा, संदेह रहेगा, चिंता रहेगी तनाव रहेगा कि सफलता मिलेगी भी या नही | लेकिन आप उसी कार्य को दृढ़-निश्चय हो संकल्प के साथ
करेंगे, तो संदेह, भ्रम, आदि उत्पन्न होंगे ही नहीं | क्योकि संदेह, भ्रम, शंका, दुविधा, तनाव चिंता आदि तो मन के विषय हैं, संकल्प के नहीं | इसलिए योग में संकल्प का विशेष स्थान है | सामान्य लोग मन के साथ जीते हैं और योगी / साधक संकल्प के साथ जीते हैं |
आभार : आवाहन, अरुण कुमार शर्मा जी
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