|| गुरु मंत्र रहस्य ||
ॐ परम तत्वाय
नारायणाय गुरुभ्यो नमः
नए-नए साधक
के मन में
कुछ संशयात्मक प्रश्न,
जो सहज ही
घर कर बैठते
हैं, वे हैं
- मैं किस मंत्र
को साधू? कौन सी साधना मेरे लिए अनुकूल रहेगी? किस देवता को मैं अपने ह्रदय में इष्ट का स्थान दूं? ये प्रश्न सहज हैं, परन्तु इनके उत्तर इतने सहज प्रतीत नहीं होते, क्योंकि प्रथम तो इनके उत्तर कहीं भी स्पष्ट भाषा में नहीं मिलते, साथ ही यह बात भी निश्चित है, कि जब तक आप अत्यधिक व्यग्र हो कर जी-जान से चेष्टा नहीं करते, तब तक योग्य गुरु का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकते| क्या इसका अर्थ यह निकाला जाय, कि अज्ञान के तिमिर में जीना ही हम सब का प्रारब्ध है? क्या इस दुविधाजनक स्थिति से निकलने का कोई उपाय नहीं?
यह शायद मेरा सुनहरा सौभाग्य ही था, कि हिमालय विचरण के दौरान मुझे विश्व प्रसिद्ध तंत्र शिरोमणि त्रिजटा अघोरी के दर्शन हुए| मैंने उनके बारे में कई आश्चर्यजनक तथ्य सुन रखे थे और इस बात से भी मैं परिचित था, कि वे गुरुदेव के प्रिय शिष्य हैं|
उस पहाड़ देहधारी मनुष्य के प्रथम दर्शन से ही मेरा शरीर रोमांचित हो उठा था.... मैं हर्षातिरेक एवं एक अवर्णनीय भय से थरथरा उठा, मेरे पाँव मानो जमीन पर कीलित हो गए, मेरा मुह आश्चर्य से खुल गया और एक क्षण मुझे ऐसा लगा मानो मेरी सांस रुक गई है .... इस स्थिति में मैं कितनी देर रहा, मुझे याद नहीं...हां! इतना अवश्य है, कि जब मैं प्रकृतिस्थ हुआ, तो वे मुस्कराहट बिखेरते हुए मेरे सामने थे, जबकि मैं एक चट्टान पर बैठा था ...
मैं दावे के साथ कह सकता हूं, कि कोई भी व्यक्ति, यहां तक कि तथाकथित 'सिंह के सामान निडर' पुरुष भी अकेले में उनके सामने प्रस्तुत होने में संकोच करेगा .... इतना अधिक तेजस्वी एवं भयावह स्वरुप है उनका| शायद मैं यह जानता था, कि वे मेरे गुरु भाई हैं, या शायद उनके चेहरे पर उस समय ममत्व के भाव थे, जो मैं उनके सामने बैठा रह सका... थोड़ी देर उनसे बात हुई, तो मेरा रहा-सहा संकोच भी जाता रहा...उन्हें गुरुदेव द्वारा 'टेलीपैथी' से मुझसे मिलने का आदेश मिला था (इस भ्रमण के दौरान यह मेरी आतंरिक इच्छा थी, कि मैं त्रिजटा से मिलूं और शायद गुरुदेव ने इसे जान लिया था) और उन्हें मेरा मार्गदर्शन करने को कहा था|
उस समय मेरा मन भी इस प्रकार के संशयात्मक प्रश्नों से ग्रस्त था और उन पर विजय प्राप्त करने के लिए मैं उनसे जूझता रहता था| पर मुझे जल्दी ही इस बात का अहेसास हो गया था, कि मैं एक हारती हुई बाजी खेल रहा हूं और मेरे मस्तिष्क-पटल पर कई नवीन प्रश्न दस्तक देने लगे - मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ कौन सा है? आदि-आदि|
जब मैंने अपनी दुविधा त्रिजटा के समक्ष राखी, तो वे ठहाका लगा कर हंसाने लगे, मानो मेरी अज्ञानता पर उन्हें दया आई हो...और फिर उन्होनें जो कुछ भी तथ्य मेरे आगे स्पष्ट किये, उनके आगे तो तीनों लोक की निधियां भी तुच्छ हैं|
उन्होनें कहां - 'प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार की समस्या का सामना कभी न कभी करता ही है, परन्तु केवल प्रज्ञावान एवं सूक्ष्म विवेचन युक्त व्यक्ति ही इससे पार हो सकता है; बाकी व्यक्ति इसमें उलझ जाते हैं और जीवन का एक स्वर्णिम क्षण अवसर गँवा देते हैं, अत्यंत सामान्य रूप से जीवन व्यतीत कर देते हैं|
'हमारे शास्त्रों में तैंतीस करोड़ देव-देवताओं की उपस्थिति स्वीकार की गई और उन सबके एकत्व रूप को ही 'परम सत्य' या 'परब्रह्म' कहा गया है, कि यदि साधक को पूर्णता प्राप्त करनी है, तो उस इन ३३ करोड़ देवी-देवताओं को सिद्ध करना पडेगा; परन्तु यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लगातार पृथ्वी पर अपने पूर्व जन्मों की स्मृति के साथ हजारों जन्म ले अथवा वह हमेशा के लिए अजर-अमर हो जाये....'
'परन्तु ये दोनों ही रस्ते बड़े पेचीदा और असंभव सी लगने वाली कठिनाइयों से युक्त हैं| इसके अलावा तुम्हें ज्ञान नहीं होता, कि कब तुम्हारी छोटी सी त्रुटी की वजह से तुम्हारी वर्षों की तपस्या नष्ट हो जायेगी और तुम उंचाई से वापस साधारण स्थिति में आ गिरोगे|
'मैं अत्यधिक लम्बे समय से हिमालय में तपस्यारत हूं और असंभव कही जाने वाली साधनाएं भी सिद्ध कर चुका हूं| इतने वर्षों के अनुभव के बाद यह मेरी धारणा है कि सभी मन्त्रों में 'गुरु मंत्र' सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, सभी साधनाओं में 'गुरु साधना' अद्वितीय है और गुरु ही सभी देवताओं के सिरमौर हैं| वे इस समस्त ब्रह्माण्ड को गतिशील रखने वाली आदि शक्ति हैं और कुछ शब्दों में कहा जाय, तो वे - 'साकार ब्रह्म' हैं|
मेरे चहरे पर आश्चर्य की लकीरें उभर आईं, जिसे देखकर उन्होनें कहा- 'तुम्हें यों अवाक होनी की जरूरत नहीं, मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है, कि मैं क्या कह रहा हूं| भ्रमित तो तुम लोग हुए हो, तुम हर चीज को बिना गूढता से निरिक्षण किये ही मान लेते हो, तभी तो आज विभिन्न देवी-देवताओं की साधनाएं तुम्हारे मन-मस्तिष्क को इतना लुभाती हैं| तुम्हारी स्थिति उस मछली की तरह है, जो की नदी को ही सक्षम और अनंत समझती है, क्योंकि सागर की विशालता से अनभिज्ञ होती हैं|
'भगवान् शिव के अनुसार सभी देवी-देवताओं, पवित्र नदियां एवं तीर्थ गुरु के दक्षिण चरण के अंगुष्ठ में स्थित हैं, वे ही अध्यात्म के आदि , मध्य एवं अंत है, वे ही निर्माण, पालन, संहार एवं दर्शन, योग, तंत्र-मंत्र आदि के स्त्रोत्र हैं| वे सभी प्रकार की उपमाओं से परे हैं... इसीलिए यदि कोई पूर्णता प्राप्त करने का इच्छुक है, यदि कोई इमानदारी से 'दिव्य बोध' प्राप्त करने की शरण ग्रहण कर लेनी चाहिए और उनकी साधना एवं मंत्र को जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिए|'
'गुरु मंत्र' शब्दों का समूह मात्र न होकर समस्त ब्रह्माण्ड के विभिन्न आयों से युक्त उसका मूल तत्व होता है| अतः गुरु साधना में प्रवृत्त होने से पहले यह उपयुक्त होगा, कि हम गुरु मंत्र का बाह्य और गुह्य दोनों ही अर्थ भली प्रकार से समझ लें|
'पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रदत्त गुरु मंत्र का क्या अर्थ है?- मैंने बीच में टोकते हुए पूछा| एक लम्बी खामोशी...जो इतनी लम्बी हो गई थी, कि खिलने लगती थी... उनके चहरे के भावों से मुझे अनुभव हुआ, कि वे निश्चय और अनिश्चय के बीच झूल रहे हैं| अंततः उनका चेहरा कुछ कठोर हुआ, मानो कोई निर्णय ले लिया हो| अगले ही क्षण उन्होनें अपने नेत्र मूंद लिये, शायद वे टेलीपैथी के माध्यम से गुरुदेव से संपर्क कर रहे थे; लगभग दो मिनिट के उपरांत मुस्कुराते हुए उन्होनें आंखे खोल दीं|
'उस मंत्र के मूल तत्व की तुम्हारे लिये उपयोगिता ही क्या हैं? मंत्र तो तुम जानते ही हो, इसके मूल तत्व को छोड़ कर इसकी अपेक्षा मुझसे आकाश गमन सिद्धि, संजीवनी विद्या अथवा अटूट लक्ष्मी ले लो, अनंत संपदा ले लो, जिससे तुम सम्पूर्ण जीवन में भोग और विलाद प्राप्त करते रहोगे... ऐसी सिद्धि ले लो, जिससे किसी भी नर अथवा नारी को वश में कर सकोगे|
एक क्षण तो मुझे ऐसा लगा, कि उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला है, पर मेरा अगला विचार इससे बेहतर था| मैंने सूना था, कि उच्चकोटि के योगी या तांत्रिक साधक को श्रेष्ठ, उच्चकोटि का ज्ञान देने से पूर्व उसकी परिक्षा लेने, हेतु कई प्रकार के प्रलोभन देते हैं, कई प्रकार के चकमे देते हैं... वे भी अपना कर्त्तव्य बड़ी खूबसूरती से निभा रहे थे ...
करीब पांच मिनुत तक उनकी मुझे बहकाने की चेष्टा पर भी मैं अपने निश्चय पर दृढ़ रहा, तो उन्होनें एक लम्बी श्वास ली और कहा - 'अच्छा ठीक है, बोलो क्या जनता चाहते हो?'
'सब कुछ' - मैं चहक उठा - 'सब कुछ अपने गुरु मंत्र एवं उसके मूल तत्व के बारे में मेरा नम्र निवेदन है' कि आप कुछ भी छिपाइयेगा नहीं|'
आखिर में उन्होनें आश्वस्त होकर निम्न बातें बताई| हमारा गुरु मंत्र 'ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः' का बाह्य अर्थ है, कि, - 'हे नारायण! आप सभी तत्वों के भी मूल तत्व हैं और सभी साकार और निर्विकार शक्तियों से भी परे हैं, हम आपको गुरु रूप में श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं|'...यह मंत्र किसी के द्वारा रचित नहीं है, जब गुरुदेव के चरण पहली बार दिव्य भूमि सिद्धाश्रम में पड़े, तो स्वतः ही दसों दिशाएं और सारा ब्रह्माण्ड इस तेजस्वी मंत्र की ध्वनि से गुंजरित हो उठा था, ऐसा लग रहा था, मानो सारा ब्रह्माण्ड उस अद्वितीय अनिर्वचनीय विभूति का अभिनन्दन कर रहा हो...'
'उसी दिन से गुरुदेव अपने शिष्यों को दीक्षा देते समय यही मंत्र प्रदान करते हैं, जो कि वास्तव में ब्रह्माण्ड द्वारा गुरुदेव के वास्तविक स्वरुप का प्रकटीकरण है|'
'तो क्या वे...' - मैं अपने आपको रोक न सका| 'श S S S ..' उन्होनें अपने मूंह पर उंगली रखते हुए मुझे आलोचनात्मक दृष्टी से देखा - 'बीच में मत बोलो, बस ध्यानपूर्वक सुनते रहो|
मुझे आखें नीचे किये सर हिलाते देख कर वे आगे बोले - 'यह सोलह बीजाक्षरों से युक्त मंत्र उन षोडश दिव्य कलाओं को दर्शाता है, जिसमें गुरुदेव परिपूर्ण हैं| ये ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ अनिर्वचनीय सिद्धियों के भी प्रतिक हैं| अब में एक-एक करके इस मंत्र के हर बीज को तुम्हारे सामने स्पष्ट करूंगा और उसमें निहित शक्तियों के बारे में बताउंगा| अच्छा, ज़रा तुम गुरु मंत्र बोलो तो!'
"ॐ परम तत्त्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः"
'बहुत खूब!, उन्होनें मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा - 'अच्छा, तो सबसे पहले हम पहला बीज 'प' लेते हैं| क्या तुम इसके बारे में बता सकते हो? नहीं, तो मैं बताता हूं| इसका अर्थ है - 'पराकाष्ठा', अर्थात जीवन के हर क्षेत्र में, हर आयाम में सर्वश्रेष्ठ सफलता, ऐसी सफलता जो और किसी के पास न हो| इस बीज मंत्र के जपने मात्र से एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपने जीवन को सफलता की अनछुई उंचाई तक ले जा सकता है, चाहे वह भौतिक जीवन हो अथवा आध्यात्मिक| ऐसे व्यक्ति को स्वतः ही अटूट धन-संपदा, ऐश्वर्य, मान, सम्मान प्राप्त हो जाता है| वह भीड़ में भी 'नायक' ही रहता है, वह मानव जाति का 'मार्गदर्शक' कहलाता है और आने वाली पीढियां उसे 'युगपुरुष' कह कर पूजती हैं|
'इसके द्वारा व्यक्ति को सूक्ष्म एवं दिव्य दृष्टी भी प्राप्त हो जाती ई और वह 'काल ज्ञान' में भी पारंगत हो जाता है| अतः वह आसानी से किसी भी व्यक्ति, सभ्यता और देश के भूत, भविष्य और वर्त्तमान को आसानि से देख लेता है|'
'वाह!' - मेरे मूंह से सहज निकल पडा| 'हां, पर ... क्या तुम और भी जानना चाहोगे या तुम इतने से ही खुश हो' - उनकी आँखों में शरारत झलक रही थी|
'नहीं! रुकिए मत! मैं सब कुछ जानना चाहता हूं|' वे मेरी परेशानी में प्रसन्नता महसूस कर रहे थे और मेरी व्यग्रता उन्हें एक संतोष सा प्रदान कर रही थी|
'तो अब हम दुसरे बीज 'र' को लेते हैं| यह शरीर में स्थित 'अग्नि' को दर्शाता है, जिसका कार्य व्यक्ति को रोग, दुष्प्रभावों आदि से बचाना है| इसके अलावा यह इच्छित व्यक्तियों को 'रति सुख' (काम) प्रदान करता है, जो मानव जीवन की एक आवश्यकता है|'
'यह सूक्ष्म अग्नि का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो कि ऊपर बताई गई अग्नि से भिन्न होता हैं इसका कार्य, व्यक्ति के चित्त से उसकी सारी कमियों और विकारों को जला कर पवित्र करता है| ये विकार 'पांच विकारों' के नाम से जाने जाते हैं| अच्छा ज़रा बताओ तो, वे कौन-कौन से हैं?'
'काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार|'
'बिल्कुल सही| इन पांच मुख्य व्याधियों अथवा विकारों को नष्ट करने से मानव चेतना का पवित्रीकरण हो जाता है, उसमें दिव्यता आ जाती है और सबसे बड़ी बात यह है, कि सारे ब्रह्माण्ड का ज्ञान उसके मस्तिष्क में स्थित हो जाता है|'
'ऐसा व्यक्ति सबके द्वारा पूजनीय 'अग्नि विद्या' में पारंगत हो जाता है, और यदि वह पूर्ण विधि-विधान के साथ सही ढंग से इस बीज मंत्र का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है, तो वह किसी भी इच्छित अवधि तक जीवित रह सकता है, सरल शब्दों में कहे तो भीष्म की तरह वह इच्छा मृत्यु की स्थिति प्राप्त कर लेता है|'
'तीसरा बीज है 'म', जो कि 'माधुर्य' को इंगित करता है| माधुर्य का तात्पर्य है - शरीर के अन्दर छिपा हुआ सत चित आनन्द, आत्मिक शान्ति| इस बीज को साध लेने से व्यक्ति के जीवन में, चाहे वह पारिवारिक हो अथवा सामाजिक, एक पूर्ण सामंजस्य प्राप्त हो जाता है, उसके जीवन के सभी बाधाएं एवं परेशानियां समाप्त हो जाती हैं| परिणाम स्वरुप उसे असीम आनन्द की प्राप्ति होती है और वह हर चीज को एक रचनात्मक दृष्टी से देखता है| उसकी संतान उसे आदर प्रदान करती है, उसके सेवक और परिचित उसे श्रद्धा से देखते है एवं उसकी पत्नी उसे सम्मान देती है और आजीवन वफादार रहती है| बेशक वह स्वयं भी एक दृढ़ एवं पवित्र चरित्र का स्वामी बन जाता है|'
'चौथा बीज 'त' तत्वमसि का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका अर्थ है वह दिव्य स्थिति, जो कि उच्चतम योगी भी प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं| तत्वमसि का अर्थ है - 'मैं तत्व हूं' या 'मैं ही वही हूं'| यह वास्तव में एके आध्यात्मिक चैतन्य स्थिति है, जब साधक पहली बार यह एहसास करता है, कि वह ही सर्वव्याप, सर्वकालीन एवं सर्वशक्तिशाली आत्मा है उसमें और परमात्मा (ब्रह्म) में लेश मात्र भी अन्तर नहीं है|
'इस बीज का अनुष्ठान सफलता पूर्वक करने पर व्यक्ति स्वतः ही अध्यात्म की उच्चतम स्थिति पर अवस्थित हो जाता है, यहां तक की आधिदैविक स्थितियां भी उसमे सामने स्पष्ट हो जाती हैं और वह इस बात से अनभिज्ञ नहीं रह जाता, कि वह पूर्ण 'ब्रह्ममय' हैं उसे जो उपलब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं, उसका तुम अनुमान भी नहीं कर सकते और न ही उन्हें शब्दों में ढालना संभव है| क्या अव्यक्त को व्यक्त किया जा सकता है? उसको तो केवल स्वयं ऐसी स्थिति प्राप्त कर अनुभव किया जा सकता है| बस तुम्हारे लिए इतना समझना काफी है, कि उससे असीमित शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं| अच्छा पांचवा बीज बोलना तो ज़रा|'
'पांचवा बीज है.. ॐ परम तत्वा... 'वा'..."
"हां, यह मानव शरीर में व्याप्त पांच प्रकार की वायु को दर्शाता है, वे हैं - प्राण, अपान, व्यान, सामान और उदान| इन पांचो पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर ही, व्यक्ति क्रिया योग में पारंगत हो पाता है| 'क्रिया' का अर्थ उस तकनीक से है, जिसे इस्तेमाल कर व्यक्ति इच्छित परिणाम प्राप्त कर लेता है| क्रिया से मुद्राओं, बंधों एवं आसनों का अभ्यास शमित है, परन्तु यह एक लम्बी और दुस्साध्य प्रक्रिया है, जिसमें कोई ठोस परिणाम प्राप्त करने में कई वर्ष लग सकते हैं|"
'परन्तु इस गुरु मंत्र के उच्चारण से, जिसमें क्रिया योग का तत्व निहित है, व्यक्ति इस दिशा में महारत हासिल कर सकता है और अपनी इच्छानुसार कितने ही दिनों की समाधि ले सकता है|'
'इस बीज को साध लेने से व्यक्ति 'लोकानुलोक गमन' कि सिद्धि प्राप्त कर लेता है और पलक झपकते ही ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में जा कर वापिस आ सकता है| दूसरी उपलब्धि जो उसे प्राप्त होती है, वह है - 'वर' अर्थात वह जो कुछ कहता है, वह निकट भविष्य में सत्य होता ही है| सरल शब्दों में वह किसी को वरदान या श्राप दे सकता है|'
'परन्तु यह तो एक खतरनाक स्थिति है है, क्या आपको ऐसा नहीं लगता? मेरा मतलब है, कि व्यक्ति किसी को भी अवर्णनीय नुकसान पहुंचा सकता है|'
'अरे बिल्कुल नहीं! क्योंकि इस स्थिति पर पहुंचने पर साधक दया, ममता और मानवीयता के उच्चतम सोपान पर पहुंच जाता है| ऐसे व्यक्ति बिल्कुल लापरवाह नहीं होते और स्वार्थ से कोसों दूर होते हैं| अतः दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की कल्पना वे स्वप्न में भी नहीं कर सकते| ठीक है न! अब मैं आगे बोलू?'
मैंने हां में सर हिलाया|
'अगला बीज है 'य', जिस्से बनाता है 'यम' (यम-नियम), अर्थात जीवन को एक सही, पवित्र एवं लय के साथ जीने का तरीका| इसके द्वारा व्यक्ति को एक अद्वितीय, आकर्षक शरीर प्राप्त हो जाता है और उसका व्यक्तित्व कई गुना निखर जाता है| जो कोई भी उसके सम्पर्क में आता है, वह स्वतः ही उसकी और आकर्षित हो जाता है और उसकी हर एक बात मानाने को तैयार हो जाता है|'
'एक और महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐसा व्यक्ति 'यम' (जो यहां यमराज को इंगित करता है) पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है, साधारण शब्दों में वह मृत्युंजय हो जाता है, अमर हो जाता है, मृत्यु कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकती...मुझे एक बेवकूफ की भांति घूरने की जरूरत नहीं (शायद उसने मेरी आँखों में उभरती संशय की लकीरों को देख लिया था)| गोरखनाथ, वशिष्ठ, हनुमान आदि ने इस उपलब्धि को प्राचीन काल में प्राप्त किया है, यह कोई नवीन स्थिति नहीं|'
वे सत्य ही कह रहे थे| 'फिर आता है 'ना' यानी 'नाद', 'अनहद नाद' अर्थात दिव्य संगीत, एक आनंदमय, शक्तिप्रद गुन्जरण, जो कि ऐसे व्यक्ति के आत्म में, जो नित्य गुरु मंत्र का जप करता है, गुंजरित होता रहता है| यह नाद वास्तव में व्यक्ति की वास्तविकता पर बहुत निर्भर करता है| उदाहरणतः जो व्यक्ति भक्ति के पथ पर कायल हो, उसे साधारणतः बांसुरी जैसी ध्वनि सुनाई देती है, जो भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय वाद्य है| इसके अतिरिक्त ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने वाले (ज्ञानी) को अधिकतर ज्ञान स्वरुप भगवान शिव का डमरू का शाश्वत नाद सुनाई पड़ता है|'
अदभुत! - मैंने कहा - 'परन्तु यही दो ध्वनियाँ है, जो साधक के समक्ष उपस्थित होती हैं?'
'नहीं, ऐसा तो निश्चित मापदण्ड नहीं है, फिर भी ये दो प्रकार के नाद ही मुख्य हैं और अधिकांशतः सुनाई पड़ते हैं| जो व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाता है, वह स्वतः ही संगीत में पारंगत हो जाता है उसकी आवाज अपने आप सुरीली, मधुरता युक्त और एक आकर्षण लिये हुए हो जाती है| जो कोई भी उसे सुनता है, वह एक अद्वितीय आनन्द वर्षा से सरोबार हो जाता है और सभी परेशानियों से मुक्त होता हुआ, असीम शान्ति अनुभव करता है|'
'अगला बीज है 'रा' यानी 'रास' जिसका अर्थ है...एक दिव्य उत्सव, एक अनिवर्चनीय मस्ती, जो कि मानव जीवन की असली पहचान है| क्या तुम बिना उत्साह, ख़ुशी और जीवन्तता के जीने का कल्पना कर सकते हो? क्या तुम बिना उत्सव और प्रसन्नता के जीवन की विषय में विचार कर सकते हो? नहीं| इसलिए इस बीज मंत्र की मदद से व्यक्ति अपने जीवन में उस तत्व को उतार पाने में सफल होता है, जिसके द्वारा उसका सम्पूर्ण जीवन परिवर्तित हो जाता है, दरिद्रता, सम्पन्नता में बदल जाती है, दुःख खुशियों में परिवर्तित हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं और असफलताएं सफलताओं में परिवर्तित हो जाती हैं'
'यदि इसका सूक्ष्म विवेचन किया जाय, तो यह उस गुप्त प्रक्रिया को दर्शाता है, जो द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोपियों पर की गई थी| वास्तव में महारास एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार में स्पन्दित के ऊपर की ओर अग्रसर किया जाता है| इस बीज के अनवरत जप से व्यक्ति सहज ही भाव समाधि में पहुंच जाता है वह गुरु में लीन हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी पूर्णतः जाग्रय हो जाती है, फलस्वरूप सह्गैनी सिद्धियां जैसे कि परकाया प्रवेश, जलगमन अटूट लक्ष्मी एवं असीमित शक्ति व्यक्ति को सहज ही प्राप्त हो जाती है|'
ऐसा कहते कहते उन्होनें अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और दुसरे ही क्षण उसमें एक केतली और दो गिलास आ गए| केतली में से बाष्प निकल रही थी| आश्चर्य से मेरा मुंह खुला रह गया और एक विस्मय से उनकी ओर देखता रह गया| उन्होनें केतली मेर से कोई तरल पदार्थ गिलास में डाला और एक गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया| वह पेरिस की मशहूर 'क्रीम्ड कॉफ़ी' थी|
'हां, मैं जानता हूं, कि तुम क्या सोच रहे हो?' - त्रिजटा ने एक चुस्की लेते हुए कहा - 'पर विशवास करो, यह कोई असामान्य घटना नहीं हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के अन्दर ऐसी शक्तियां निहित हैं, जरूरत है मात्र उनको उभारने की|'
उन्होनें फिर एक चुस्की भरी और तरोताजा हो उन्होनें अपना प्रवचन प्रारम्भ किया - 'अगला बीज है 'य' और इसका तात्पर्य है 'यथार्थ' अर्थात वास्तविकता, सच्चाई, परम सत्य| इस बीज पर मनन करने से व्यक्ति को अपनी न्यूनताओं का भान होता है और वह पहली बार इसके कारण अर्थात 'माया' के स्वरुप देखता है और जान पाता है|'
'यदि व्यक्ति नित्य गुरु मंत्र का जप करे, तो वह माया जाल को काटने में सफल हो सकता है जिसमें कि वह जकड़ा हुआ है, स्वतः ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह 'दिव्य बोध' से युक्त हो जाता है, एक जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेता है, फिर वह समाज में रह कर एवं नाना प्रकार के लोगों से मिल कर भी अपनी आतंरिक पवित्रता एवं चेतना बनाए रखने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में खिल कर भी अछूता रहता है|'
'जनक की तरह...!' - स्वतः ही मेरे मुंह से निकला!
'हां, जनक की तरह, राम, कृष्ण और नानक की तरह..!'
'इसके उपरांत आता है बीज मंत्र 'ण', जो कि 'अणु' या ब्रह्म की शक्ति अपने में निहित किये हुए है| ब्रहम के विषय में एक जगह कहा गया है - 'अणोरणीयाम' अर्थात सूक्ष्मतम पदार्थ अणु से भी हजारों गुना सूक्ष्म क्योंकि वह तो अणुओं में भी व्याप्त है|'
'तो इस बीज के नित्य उच्चारण से व्यक्ति ब्रह्म स्वरुप हो जाता है| वह हर पदार्थ में खुद को ही देखता है, हर स्वरुप में खुद के ही दर्शन करता है, चाहे वह पशु हो, व्यक्ति हो अथवा पत्थर| दया, ममता उसकी प्रकृति बन जाते हैं और वह समस्त विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम' की दृष्टि से देखता है| वह किसी की मदद अथवा सेवा करने का कोई भी अवसर नहीं गवाता और..'
'और?'
'और वह स्वतः उन गोपनीय अष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है, जो कि ग्रंथो में वर्णित है| अणिमा, महिमा, गरिमा इत्यादि उसे प्राप्त हो जाती हैं, हालांकि यह अलग बात है, कि वह उनका उपयोग नहीं करता और एक अति सामान्य मनुष्य की भांति ही प्रतीत होता है|'
'इसके बाद आता है 'य' अर्थात 'यज्ञ' और इस बीज को निरन्तर जपने से व्यक्ति स्वतः ही यज्ञ शास्त्र एव यज्ञ विज्ञान में परंगत हो जाता है, उसे प्राचीन गोपनीय तथ्यों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और वह विद्वत समाज द्वारा पूजित होता है, धन एवं वैभव की देवी महालक्ष्मी उसके गृह में निरन्तर स्थापित रहती है और वह धनवान, ऐश्वर्यवान हो संतोष पूर्वक एवं शान्ति पूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है|'
'यज्ञ शब्द का गूढ़ अर्थ है - अपने समस्त शुभ एवं अशुभ कर्मों की आहुति को 'ज्ञान की अग्नि' के द्वारा गुरु के चरणों में समर्पित करना| यही वास्तविक यज्ञ है और व्यक्ति इस स्थिति को इस बीज मंत्र के जप मात्र से शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, जिससे कि वह कर्मों के कठोर बन्धन से मुक्त हो जन्म-मृत्यु के आवागमन चक्र से भी छूट जाता है|'
'अगला बीज है 'गु' अर्थात 'गुन्जरण' और यह व्यक्ति के आतंरिक शरीरों - भू, भवः, स्वः, मः, जनः, तपः, सत्यम - से उसके चित्त के योग को दर्शाता है| यह अत्यंत ही उच्च एवं भव्य स्थिति है, जिसे प्राप्त कर वह योगी अन्य योगियों में श्रेष्ठ कहलाता है और 'योगिराज' की उपाधि से विभूषित हो जाता है| ऐसे व्यक्ति की देवता एवं श्रेष्ठ ऋषि भी पूजा करते हैं और उसकी झलक मात्र के लिये लालायित रहते हैं|'
'चूंकि 'गु' गुरु का भी बीज मंत्र हैं अतः इसको जपने से व्यक्ति स्वतः ही गुरुमय हो जाता है और गुरु का सारा ज्ञान, शक्तियां एवं तेजस्विता उसके शरीर में उतर जाती हैं| वह समस्त विश्व में पूजनीय हो जाता है और इच्छानुसार किसी भी लोक अथवा गृह में आ-जा सकता है|'
'परा जगत के लोग एवं गृह... तो क्या पृथ्वी के अलावा भी जीवन की स्थिति है?
'कैसे मूर्खों का प्रश्न है?' - त्रिजटा कुछ उत्तेजित होकर बोले - 'क्या तुम सोचते हो कि मात्र पृथ्वी पर ही जीवन है? तुम लोग अहम् से इतने पीड़ित हो, कि अपने आपको ही 'भगवान् द्वारा चुने गए' समझते हो' - वे व्यंग से मुस्कुराये|
'परन्तु एक बार तुम इस बीज को साध लो, तो तुम कोई अदभुत और अनसुनी घटनाओं के साक्षी बन जाओगे| बेशक देर से ही सही अब तो विज्ञान ने भी अन्य लोकों पर जीवन के तथ्य को स्वीकार कर लिया है|'
'फिर आता है 'रु' अर्थात रूद्र जो कि इस ब्रह्माण्ड का मुख्य पुरुष तत्व है, उसे चाहे गुणात्मक शक्ति कहो या शिव अथवा कुछ और| इस बीज को सिद्ध करने पर व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होता, न ही काल-कवलित होता है और न ही उसे बार-बार जन्म लेता पड़ता है| वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता एवं सर्वशक्तिशाली हो जाता है|'
'वह चाहे, तो विश्वामित्र की भांति एक नवीन सृष्टि रच सकता है और शिव की तरह उसे नष्ट भी कर सकता है सम्पूर्ण प्रकृति उसके इशारों पर नृत्य करती प्रतीत होती है| उसे भोजन, जल, निद्रा आदि कि आवश्यकता नहीं होती, परिणाम स्वरुप उसे मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं करना पड़ता| एक स्वर्णिम, दिव्य आभा मंडल उसके चतुर्दिक बन जाता है और प्रत्येक व्यक्ति, जो उसके समीप आता है, उससे प्रभावित होता है और उसका भी आध्यात्मिक उत्थान हो जाता है, उसकी सारी इच्छाएं स्वतः पूर्ण हो जाति हैं|'
'अगले बीज
'यो' का अर्थ
है - 'योनी'| मानव
जन्म के विषय
में कहा जाता
है, कि यह
तभी प्राप्त होता
है, जब जीव
विभिन्न, चौरासी लाख योनियों में
विचरण कर लेता
है, परन्तु इस
बीज के दिव्य
प्रभाव से व्यक्ति अपनी
समस्त पाप राशि
को भस्म करने
में सफल हो
जाता है और
फिर उसे पुनः
निम्न योनियों में
जन्म लेना नहीं
पड़ता|
'योनी का
एक दूसरा अर्थ
है - शिव कि
शिवा (शक्ति), ब्रह्माण्ड का
मुख्य स्त्री तत्व,
ऋणात्मक शक्ति| सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसी
शक्ति के फलस्वरूप गतिशील
है और साधक
इस बीज को
सिद्ध कर लेता
है, उसके शरीर
में हजारों अणु
बमों की शक्ति
उतर आती है|'
मैं
उनकी ओर भाव
शून्य आँखों से
ताक रहा था|
मेरे संशय युक्त
चहरे पर देख
उन्होनें मुझे आश्वस्त करने
के लिये एक
शब्द भी नहीं
कहा, बल्कि ऐसा
कुछ किया, जो
इससे लाख गुणा
बेहतर था| उन्होनें अपनी
दृष्टि एक विशाल
चट्टान पर स्थिर
कि, जो कि
मेरी दाहिनी तरफ
लगभग १५ मीटर
की दूरी पर
स्थित थी... और
दुसरे ही क्षण
एक भयंकर विस्फोट के
साथ उसका नामोनिशान मिट
गया|
भय
और विस्मय एक
साथ मेरे चहरे
पर क्रीडा कर
रहे थे, साथ
ही मेरे रक्तहीन चेहरे
पर विश्वास कि
किरणें भी उभर
रही थीं| उन्होनें अपनी
'कथनी' को 'करनी'
में बदल दिया
था, इससे अधिक
और क्या हो
सकता था...
'इसके अलावा-
उन्होनें सामान्य ढंग से बात
आगे बढाई, मानो
कुछ हुआ न
हो - 'ऐसा व्यक्ति अपने
दिव्य व्यक्तित्व को
छुपाने के लिए
दूसरों पर माया
का एक आवरण
डाल सकता है,
अद्वितीय एवं सर्वोत्तम व्यक्तित्व होने
पर भी वह
इस तरह बर्ताव
करता है, कि
आसपास के सभी
लोग उसे सामान्य व्यक्ति समझने
की भयंकर भूल
कर बैठते हैं|
वह सामान्य लोगों
की तरह ही
उठता-बैठता है,
खाता-पीता है,
हसता-रोता है,
अतः लोग उसके
वास्तविक स्वरुप को न
तो देख पाते
हैं और न
ही पहचान पाते
हैं|'
सूर्य
पश्चिमी क्षितिज पर अपने मंद
प्रकाश की छटा
बिखेरता हुआ अस्तांचल की
ओर खिसक रहा
था, पशु-पक्षी
अपने-अपने घरों
की ओर विश्राम के
लिए जा रहे
थे| मैं उसी
मुद्रा में बुत
सा विस्मय के
साथ त्रिजटा के
द्वारा इन रहस्यों को
उजागर होते हुए
सुन रहा था|
हम कॉफ़ी पी
चुके थे और
उसकी सामग्री शुन्य
में उसी रहस्यमय ढंग
से विलुप्त हो
गई थी, जिस
प्रकार से आई
थी| मैं सोच
रहा था, कि
गुरु मंत्र में
कितनी सारी गूढ़
संभावनाएं छुपी हुई हैं
और मैं अज्ञानियों कि
भांति तथाकथित श्रेणी
की छोटी-मोटी
साधनाओं के पीछे पडा
हूं| मैं यही
सोच रहा था,
जब त्रिजटा कि
किंचित तेज आवाज
ने मेरे विचार-क्रम को भंग
कर दिया|
'मैं देख
रहा हूं, कि
तुम ध्यान पूर्वक
नहीं सुन रहे
हो' - उसके शब्द
क्रोधयुक्त थे - 'और यदि
यहीं तुम्हारा व्यवहार है,
तो मैं आगे
एक शब्द भी
नहीं कहूंगा|'
'ओह! नहीं...मैं तो स्वप्न
में भी आपको
या आपके प्रवचन
की उपेक्षा करने
की नहीं सोच
सकता...मैं तो
अपनी और दुसरे
अन्य साधकों की
न्यून मानसिकता पर
तरस खा रहा
हूं, जो कि
गुरु मंत्र रुपी
'कौस्तुभ मणि' प्राप्त कर
के भी दूसरी
अन्य साधनाओं के
कंकड़-पत्थरों की
पीछे पागल हैं...'
एक
अनिर्वचनीय मुस्कराहट उनके होठों पर
फैल गई और
उनकी आँखों में
संतोष कि किरणें
झलक उठी| वे
समझ गए, कि
मैंने उनकी हर
बात बखूबी हृदयंगम कर
ली है, अतः
वे अत्याधिक प्रसन्न प्रतीत
हो रहे थे|
'आखिरी शब्द
का पहला बीज
है 'न' अर्थात
'नवीनता', जिसका अर्थ
है - एक नयापन,
एक नूतनता और
ऐसी अद्वितीय क्षमता,
जिसके द्वारा व्यक्ति अपने
आपको अथवा दूसरों
को भी समय
की मांग के
अनुसार ढाल सकता
है, बदल सकता
है या चाहे
तो ठीक इसके
विपरीत भी कर
सकता है अर्थात
समय को अपनी
मांगों के अनुकूल
बना सकता है|
जो व्यक्ति इस
बीज को पूर्णता के
साथ आत्मसात कर
लेता है, वह
किसी भी समाज
में जाएं, वहां
उसे साम्मान प्राप्त होता
है, फलस्वरूप वह
हर कार्य में
सफल होता हुआ
शीघ्रातिशीघ्र
शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच
जाता है, जीवन
में उसे किसी
भी प्रकार की
कोई कमी महसूस
नहीं होती|'
'वह किसी
भी व्यवसाय में
हाथ डाले, हमेशा
सफल होता है
और समय-समय
पर वह अपने
बाह्य व्यक्तित्व को
बदलने में सक्षम
होता है, उदाहरण
के तौर पर
अपना कद, रंग-रूप, आँखों का
रंग आदि| जब
कोई उसे व्यक्ति उससे
मिलता है, हर
बार वह एक
नवीन स्वरुप में
दिखाई देता है|
ऐसा व्यक्ति अपनी
इच्छानुसार हर क्षण परिवर्तित हो
सकता है और
अपने आसपास के
लोगों
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
को आश्चर्यचकित कर सकता है|'
'इसका सूक्ष्म अर्थ
यह है, कि
उसका कोई भी
व्यक्तित्व इतनी देर तक
ही रहता है,
कि वह इच्छाओं एवं
विभिन्न पाशों में जकड़ा
जाये| हर क्षण
पुराना व्यक्तित्व नष्ट
होकर एक नवीन,
पवित्र, व्यक्तित्व में
परिवर्तित होता रहता है|
इसी को नवीनता
कहते हैं| ऐसा
व्यक्ति हर प्रकार के
कर्म करता हुआ
भी उनसे और
उनके परिणामों से
अछूता रहता है|'
'अंतिम बीज
'म' 'मातृत्व' का
बोधक है, जिसका
अर्थ है असीमित
ममता, दया और
व्यक्ति को उत्थान की
ओर अग्रसर करने
की शक्ति, जो
मात्र माँ अथवा
मातृ स्वरूपा प्रकृति में
ही मिलती है|
माँ कभी भी
क्रूर एवं प्रेम
रहित नहीं हो
सकती, यही सत्य
है| शंकराचार्य ने
इसी विषय पर
एक भावात्मक पंक्ति
कही है -
'कुपुत्रो जायेत
क्वचिदपि कुमाता न भवति|'
अर्थात
'पुत्र तो कुमार्गी एवं
कुपुत्र हो सकता है,
परन्तु माता कभी
कुमाता नहीं हो
सकती| वह हमेशा
ही अपनी संतान
को अपने जीवन
से ज्यादा महत्त्व देती
है|'
'इस बीज
को साध लेने
से व्यक्ति स्वयं
दया और मातृत्व का
एक सागर बन
जाता है| फिर
वह जगज्जननी मां
की भांति ही
हर किसी के
दुःख और परेशानियों को
अपने ऊपर लेने
को तत्पर हो,
उनको सुख पहुंचाने की
चेष्टा करता रहता
है| वह अपनी
सिद्धियों और शक्तियों का
उपयोग केवल और
केवल दूसरों की
एवं मानव जाति
कि भलाई के
लिए ही करता
है| बुद्ध और
महावीर इस स्थिति
के अच्छे उदाहरण
है|'
त्रिजटा अचानक
चुप हो गए
और अब वे
अपने आप में
ही खोये हुए
मौन बैठे थे|
मर्यादानुकुल मुझ उनके विचारों में
हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए
था, परन्तु मैं
तो गुरु मंत्र
के विषय में
ज्यादा से ज्यादा
जानने का व्यग्र
था|
मैं
जान-बूझ कर
कई बार खांसा
और अंततः उनकी
आँखें एक बार
फिर मेरी ओर
घूम गई ..वे
गीली थीं...
'जो कुछ
भी मैंने गुरु
मंत्र के बारे
में उजागर किया
है' ...उन्होनें कहा
- 'यह
वास्तविकता का शतांश भी
नहीं है और
सही कहूं तो
यदि कोई इसकी
दस ग्रंथों में
भी विवेचना करना
चाहे, तो यह
संभव नहीं, परन्तु
...' उनकी
आंखों का भाव
सहसा बदल गया
था - 'परन्तु मैं
सौ से ऊपर
उच्चकोटि के योगियों, संन्यासियों, यतियों
को जानता हूं,
जिनके सामने सारा
सिद्धाश्रम नतमस्तक है और उन्होनें इसी
षोड़शाक्षर मंत्र द्वारा ही
पूर्णता प्राप्त की है...'
'कई गृहस्थों ने
इसी के द्वारा
जीवन में सफलता
और सम्पन्नता की
उचाईयों को छुआ है|
औरों की क्या
कहूं स्वयं मैंने
भी 'परकाया प्रवेश
सिद्धि' और 'ब्रह्माण्ड स्वरुप
सिद्धि' इसी मंत्र
के द्वारा प्राप्त की
है..'
उनकी
विशाल देह में
भावो के आवेग
उमड़ रहे थे|
वे किसी खोये
हुए बालक की
भांति प्रतीत हो
रहे थे, जो
अपनी मां को
पुकार रहा हो,
प्रेमाश्रु उनके चहरे पर
अनवरत बह रहे
थे, जबकि उनके
नेत्र उगते हुए
चन्द्र की ज्योत्स्ना पर
लगे हुए थे|
'तुम इस
व्यक्तित्व (श्री नारायण दत्त
श्रीमालीजी) अमुल्यता की कल्पना भी
नहीं कर सकते,
जिसका मंत्र तुम
सबको देवताओं की
श्रेणी में पहुंचाने में
सक्षम है|'
"श्री सार्थक्यं नारायणः'
- 'वे तुम्हें सब
कुछ खेल-खेल
में प्रदान कर
सकते हैं| अभी
भी समय है,
कंकड़-पत्थरों को
छोडो और सीधे
जगमगाते हीरक खण्ड को
प्राप्त कर लो|'
ऐसा
कहते-कहते उन्होनें मेरी
ओर एक छटा
युक्त रुद्राक्ष एव
स्फटिक की माला
उछाली और तीव्र
गति से एक
चट्टान के पीछे
पूर्ण भक्ति भाव
से उच्चरित करते
हुए चले गए
-
नमस्ते
पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
बिजली
की तीव्रता के
साथ मैं उठा
और त्रिजटा के
पीछे भागा..परन्तु
चट्टान के पीछे
कोई भी न
था..केवल शीतल
पवन तीव्र वेग
से बहता हुआ
मेरे केश उड़ा
रहा था| वे
वायु में ही
विलीन हो गए
थे| मैं मन
ही मन उस
निष्काम दिव्य मानव को
श्रद्धा से प्रणिपात किया,
जिसने गुरु मंत्र
के विषय में
गूढ़तम रहस्य मेरे
सामने स्पष्ट कर
दिए थे|
..तभी अचानक
मेरी दृष्टी नीचे
अन्धकार से ग्रसित घाटी
पर गई, ऊपर
शून्य में 'निखिल'
(संस्कृत में पूर्ण चन्द्र
को 'निखिल' भी
कहते हैं) अपने
पूर्ण यौवन के
साथ जगमगा कर
चातुर्दिक प्रकाश फैला रहा
था और ऐसा
प्रतीत हो रहा
था, मानो सारा
वायुमंडल, सारी प्रकृति उस
दिव्य श्लोक के
नाद से गुज्जरित हो
रही हो -
नमस्ते
पुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सलं |
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
नमस्तेस्तु ऋषिकेश नारायण नमोस्तुते ||
end of story
कब
हम जिन्दा सद्गुरु की
पूजा कर सकेगे
| जो नर से
नारायण बनाने का
ज्ञान हमें दे
सके | जिन्दा सद्गुरु ही
ये कर सकता
है | कब हम
इसे सद्गुरु को
पहचानेगे ?
समय
किसी का नहीं
होता है | आज
जो समय है
वो कल भी
वासे हो ये
जरुरी नहीं ?एस
लिए आज ही
आप गुरु के
सामने समर्पण कर
दे . क्या पता
गुरु की किरपा
हो जाये | आप
मुक्त हो जाये
| अज्ञानता से माया से
लोभ से वासना
से . ये विकार
ही आप का
कर्म बंधन है
जो आप खुद
उसे आपने ऊपर
ले रखा है
| जरूरत है इसे
सद्गुरु की जो आप
को भर हिन्
बना दे पाप
मुक्त बना दे
..........
-मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान, जुलाई
२०१०